अल्फ़ाज़
अल्फ़ाज़
न जाने कब,
आवाज़ मेरी,अल्फाज़ बन गई......
कलम की धार पे,
अहसास के सिफर को भी पहचान मिल गई....
लफ़्ज़ों की शक़्ल में,
कभी दर्द की आतिशों को लिख देती,
बेनाम जज्बातों की कभी नुमाइश कर देती....
जिंदगी की मासुमियत को,
इक पल थम के सराहना सीखा गई....
ना जाने कब,
मेरी कलम मेरे अहसासो की साँसे बन गई !
