अकल्पनीय दृश्य
अकल्पनीय दृश्य
आसमान क्यों साफ़ है दिख रहा
धूल धुआँ नहीं कहीं है छाया हुआ
शीत सी ठंडी पवन है चल रही
ना जाने कहाँ से आयी चिड़िया है चह-चहा रही
दूर देखो तो पहाड़ियां है दिख रही
छुपी हुयी थी अब तक इक राज सी
उस राज से भी पर्दा है हट गया
या यूँ कहुँ ..धुआँ जो बादलों में था वो छट गया
क्यों फ़िज़ाओं ने अचानक है करवट बदली
मौसम है बदला या मौसम की फितरत है बदली
ये देख कर हैरान मैं भी हो रहा हूँ
इस दृश्य को देख कुछ विचार मन में संजो रहा हूँ
ऊँची ऊँची इमारतों में सन्नाटा बसर था
खिड़कियाों दरवाज़ों पर हर वक़्त पर्दा ही था
हो रहे है आज रोशन किस चमक से
क्यों मच रहे है शोर आज उन्ही घरों से
अनजान चेहरे जाने पहचाने से है लग रहे
सुकून की मुस्कुराहट से कैसे पलों को है ठग रहे
कल तक जिसकी कदर नहीं थी किसी को
आज वही लोग अनमोल है लग रहे
काश यूहीं बीत जाये ज़िंदगी सुकून में
बस भाग रहे थे किस जीत के जुनून में
ये ठहराव जो वक़्त ने दिया है
समझ जाये गर इशारा जो कुदरत ने किया है
तो फिर स्वर्ग धरती पर बन जायेगा
आने वाला कल खिलकर मुस्कुराएगा
आने वाला कल खिलकर मुस्कुराएगा।
