अजनबी
अजनबी
कोई अपना सा ....
अनजानी जीवन राहों में
वक़्त की अनदेखी बांहों में
कभी कोई टकराता है
बस यूँ ही मिल जाता है
जो रहा कभी दोस्त नहीं
और हमसफ़र भी नहीं
न जाने कैसे फिर भी दिल
को इतना भा जाता है ....!
ढेरों बाते होती हैं उससे
कितनी कथा कहानी क़िस्से
सारे दुख सुख भी हैं बंटते
बातें जो किसी से नहीं करते
वो भी लब पर आ जाती हैं
दिल को हल्का कर जाती हैं
अजनबी एक वो अनजाना सा
दिल को क्यूँ लगता पहचाना सा..!
उससे कोई रिश्ता न नाता
फिर भी वो कैसे दिल को भाता
उसको सुनने को दिल कहता है
मानूँ बातें उसकी दिल करता है
कोई हक नहीं है उसपर मेरा
पर हक जताना अच्छा लगता है
कोई नहीं है रिश्ता फिर भी
अपनों से ज़्यादा अपना लगता है...!
कभी नहीं चाहा मैंने
उस संग रिश्ता कोई बनाऊँ मैं
न ही कभी ये ख़्वाहिश की
किसी बन्धन में बंध जाऊँ मैं
अक्सर दिल कहता है ख़ुद से
क्या उसको भी ऐसा लगता है
साथ एक दूजे का हम दोनों
को क्यों इतना अच्छा लगता है...!
कैसा अजीब सा रिश्ता है यह
आँखों में ख़ुशबुओं सा महकता है
कोई नाम नहीं है उसका पर
दिल में बारिश सा बरसता है
कैसा ये अहसास है मेरा
जो मेरी रूह में सूर्खरू बसता है
क्यों दिल ये मेरा उसके
संग संग हँसकर चलता है...!

