अभी गर
अभी गर
अभी गर ये अक्षर हैं
शब्द इन्हें तुम बनने दो।
हर मौसम को जीने दो।
हर राग में इनको रमने दो
सागर की ये बूंदें हैं।
नदियों सा इन्हें,
तुम बहने दो ।
उड़ते हैं तो उड़नें दो
विश्वास की जडें बनने दो
अभी ये लकीरें हैं
आकार इन्हें तुम लेने दो।
भूत भविष्य को रहने दो
हुनर को ही जीने दो।
तूफाँ से टकरा जाएंगे
हवाएं है, अभी बहने दो ।
खुद को ये तराश ही लेंगे
रूठते हैं तो रूठने भी दो।
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निश्चल हंसी।
हंसते खिलखिलाते
कोरे पन्ने हैं ।
समझ में लेकिन
सतयुगी बच्चें हैं।
देवता भी देख
इठलाते हैं।
बचपन-बचपन
बस यही
दोहराते हैं।
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क्या खाई क्या पहाड़।
धरती क्या आकाश ।
बचपन ने कब नापा इन्हें ।
बस जीया अपरंपार।
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