अब आँखों में अश्रु नहीं
अब आँखों में अश्रु नहीं
नारी हूँ कोई वस्तु नहीं
मन बहलाने की चीज़ नहीं
कुछ अरमान भी है मेरे
कुछ नयनों में मेरे भी हैं सपने
मैं अपने पग से चलती हूँ
अपने पथ पर ही चलना चाहूँ
क्यों बाँध समाज की बेड़ियाँ
मेरे पथ में काँटे बोते हो
मैं बन सीता कब तक कष्ट सहूँ
अरे कब तक मैं अग्नि परीक्षा दूँ
कब तक अपनों की ही ख़ातिर
सभा बीच अपमान का गरल पीऊँ
अरे कब !हाँ कब तक मैं हाथ जोड़
अपने कान्हा की राह तकूँ
बस अब आँखों में अश्रु नहीं
अब तो चिंगारी ही दहकती है
अब न त्याग की मूरत बनना चाहूँ
न अब बेचारी अबला सुनना चाहूँ
अब नारी सती नहीं न जौहर होगा
अब तो हर जुल्म का हिसाब बराबर होगा
देते हुए हवा और गगन
कुदरत ने न जब फर्क किया
तुम कौन हम पर अधिकार जताने वाले
कौन हो तुम हमको अबला बतलाने वाले
सुन लो समाज के ठेकेदारों
अब हम साधारण सी नार नहीं कटार कहलाएँगे
अपनी मान प्रतिष्ठा की खातिर
अरि पर हम तलवार उठाएँ गे
अब आँखों में अश्रु नहीं
अब तो चिंगारी ही दहकती है।।