आत्मसम्मान
आत्मसम्मान


ओढ़कर सच की चादर को चला यूँ झूठ का साया,
तभी झूठों के झुंडों में खुदी को एक ही पाया।
पता ना था मिलेगा एक दिन अपनी भी राहों में,
कहेगा क्यों चला अकेला खड़े हम भी है राहों में।
मुझे मंजूर है गिरना मेरे जीवन की राहों में,
नहीं मंजूर पर गिरना मेरी खुद की निगाहों में।
मेरी उठती हुई नज़रें मुझे मंज़िल पे लायेंगी,
झुकी ना तब किसी के सामने, अब क्यूँ लजाएंगी।
तू चल अपने झूठे अभिमान की खातिर,
मुझे रहने दे अकेला मेरे सम्मान की खातिर।