आस
आस
मैं चुप, शांत, तन्हा खड़ी थी,
सिर्फ पास बहते समुन्दर में शोर था।
तब ही समुन्दर से यादों का सैलाब उठा,
मुझे बहा ले गया।
डूबती चली गई, सोचती चली गई।
तुम्हारा यूं छुप छुप के देखना,
पकड़े जाने पर नज़रे चुराना, याद आता है।
वक़्त पे स्कूल ना पहुंचने पर,
बेचैनी भरी निगाहों से,
खिड़की से बार बार झांकना, याद आता है।
मुझे देख, आंखों की चमक
वा होठों की मुस्कुराहट,
याद आता है।
दूर से बिना कुछ बोले,
सब कुछ आंखों से बयान कर देना, याद आता है।
खाली वक़्त में एक दूसरे का हाथ पकड़,
पूरे स्कूल की सैर करना, याद आता है।
अब तो सिर्फ इन यादों के सैलाब में डूबती जा रही हूं,
तुम आओगे कश्ती बनकर, बस यही सोच रही हूं।
