आरंभ और अंत
आरंभ और अंत
यह कविता शेक्सपियर की मानव जीवन के सात चरणों के बारे में लिखी गई पंक्तियों और तमिल सिद्धर पट्टिणथार की गीत दोनों के आधारित लिखी गई है।
सारे दुनिया है एक मंच
लोग यहां कभी आते हैं और कभी निकलते हैं
हर जीवन में आरंभ और अंत हैं
मां के गर्भ से जीवन आरंभ होता है
बचपन, लड़कपन, युवा अवस्था पारकर
वृद्धावस्था पहुंचता है
तन बदल जाता है
जवानी बदल जाती है
दांत गिर जाते हैं
आंखें काली हो जातीं हैं
उम्र ढल जाती है
क्रोध बढ़ जाता है - और
हाथ में लाठी लेकर धीरे-धीरे
चलना पड़ता है
बुद्धि लुप्त हो जाती है
श्रवण बकरा हो जाता है
मुखवाणिहीन हो जाता है
मल निकलता है बार-बार
अंत में....
पैदल चलना बंद हो जाता है
चार भूत घेर हो जाने पर
सांस बंद हो जाता है
दिल की धड़कन भी रुक हो जाती है
आरंभ और अंत
दोनों एक जीवन में - पर
आत्मा को आरंभ भी नहीं
अंत भी नहीं
हे, मानव! आराम से खुश ना करो
अंत से भी दुख ना करो
आगे चलते रहो!
