आओ चलो लौट चलें।
आओ चलो लौट चलें।
आओ, चलो लौट चलें फिर उसी दुनिया में,
जहाँ न कोई धार्मिक समूह, न कोई कर्तव्य,
न कोई जात से है ऊँचा-नीचा।
आओ, चलो लौट चलें, फिर उसी दुनिया में,
जहां सिर्फ प्यार है, मासूम-सा दिल है,
वो दिल, जो संस्कार की काली राख से ढक गया है,
आओ, चलो फिर उसे साफ कर उसका लाल रंग वापस ला दें।
आओ, चलो लौट चलें, फिर उसी दुनिया में,
जहाँ काम, काम नहीं इश्क़ है,
ज़िंदगी एक संघर्ष नहीं, खेल है,
जहाँ गलतियां करने में कोई हिचक नहीं,
फिर उसकी सज़ा में भी कोई झिझक नहीं
आओ, चलो लौट चलें, फिर उसी दुनिया में,
वो दुनिया जिसे हम भुला बैठे है,
वो दुनिया जिसमे हम कभी जीते थे,
वो दुनिया जहां न था कोई समाज, न ही उसके सिद्धान्त,
न ही झूठे रिश्तोंद्वारा थोपी गयी मंज़िलें
और उसे पाने की उम्मीदों के कारण।
कौन-सी है वो मंज़िलें? कौन-सी है वो उम्मीदें? जिन्हें हम लेकर तो पैदा नहीं हुए थे फिर भी ढ़ोते रहते है।
हमारी ज़िन्दगी हमारी है या समाजद्वारा बनाई गई सिद्धान्तों की?
क्या ये भी सीखा जाता है कि कैसे जीना चाहिए?
क्या
सांस लेने को, चेहरे में हल्की मुस्कुराहट लिए चलने को,
जो चाहते हो वो करने को जीना नहीं कहते?
दुनिया तो वही है जो बचपन में थी,
मगर बड़े होकर ये बदली हुई क्यों लगती है?
लौटना चाहता हूँ, जहाँ कुछ करने के पहले सोचना नहीं था,
किसी को गले लगाने के लिए खुद रोकना नहीं था,
जहां हँसना-रोने असली और दिल खोलकर होता था,
जहां पैंट फटने पर इज़्ज़त की परवाह नहीं थी।
मस्ती में इतने मगन थे कि दुख-सुख की कोई परिभाषा नहीं थी,
ईमानदारी इतनी थी कि जब गुस्सा है, तो तांडव कर देते थे,
गुस्सा खत्म हुआ तो भूलकर फिर मस्त हो जाते थे।
किसी लड़की को देख-कर उसकी सुंदरता नहीं उसकी मस्ती भाती थी।
न ही चिन्ता थी कि कोई क्या कहेगा,
न ही प्रेम का कुछ पता था, न ठरक का,
न ही नफरत का और न ही हिंसा का।
वो दुनिया तो लगता है जैसे किताबी बात हो,
मगर ऐसा है नहीं, किताबी हम हो गये है समाज के नियम के।
ज़रा सी ईमानदारी, ज़रा सा खुद से प्यार और चाहिए आँखें साफ।
दुनिया वही है, यहीं है, लोग जी भी रहे है, बस ये लालच के चश्मे से दिखती नहीं है।