रोज़ ड़े
रोज़ ड़े
रोज़ डे
एक रोज क्यों मनाते हो
रोज़ डे।
रोज-रोज मनाओ न
रोज़ डे।
हाँ
गुलाब प्रतीक है प्रेम का
लेकिन निष्छल।
काँटों के बीच खिलता है
लेकिन फैलाता है सुरभि।
नहीं करता पक्षपात
माँगता नहीं
अभिव्यक्ति की आजादी।
चढ़ा दो देव पर
चाहे दो हाथों में
किसी सुकुमारी के
चढ़ा दो मृत शरीर पर
या
तोड़कर बिछा दो राहों में।
रोज-रोज मनाओ
रोज डे
लेकिन
उससे खिले
गुलाबी मुस्कान
किसी बच्चे के चेहरे पर
किसी शोषित-वंचित
के अधरों पर
और
किसी पीड़ित के
हृदय में।