आज़ादी की अनुगूँज उठाओ
आज़ादी की अनुगूँज उठाओ
जानती हूँ खंजर सी खूँपती है रिवायतें तुम्हारी मखमली पीठ पर,
बहुत गहरे निशान है "देर लगेगी भरने में"
कहाँ फ़र्क है एक लाश और तुम में।
लाश में साँसों का शृंगार नहीं होता वैसे तुम भी नखशिख अहसास के शृंगार से वंचित पड़ी हो,
खुद की भीतरी जिह्वा को फ़ड़फ़ड़ाओ वरना दफ़न कर दी जाओगी मृत समझकर।
ओ बौने खयालों वाली दुनिया की किरदार यूँ ईश को कोसते नहीं,
कोस लो उन गत किरदारों को जिसने कमज़ोरी और सहने की शक्ति को अपनी पहचान बनाया।
कोसो उन पितृसत्तात्मक के परवानों को जो इस कहानी के रचयिता और निर्देशक है,
शोभा नहीं देता संसार रथ की धुरी को यूँ शापित सी पड़े रहना।
उठो उस भोर का निर्माण करो अपने आने वाली नस्लों की ख़ातिर प्रताड़ना का प्रतिरोध करो
उन पंक्तियों को तलाशो जिनमें मुखरित वर्तनियां भरी हो।
धुंधली कर दो अपनी बेबस छवि, किरदार अपना गौहर सा प्रतिबिम्बित कर लो आसमान की क्षितिज के पार हो जाओ
इतना उछलो, रश्क भर जाए दुन्यवी नेत्रों में उतने पायदान पर आगे बढ़ो।
अलविदा कहो हर चोट को जो सदियों से थोपी गई हो, अवसाद की आदी मत बनों
मुक्त गगन को चुन लो, आज़ादी की अनुगूँज उठाओ।
दे दो अब नया मोड़ ज़िंदगी को जीवन के प्रति अनुराग जगाओ,
मुस्कान का मुखडा और उम्मीद के अंतरे से नये जीवन को आह्वान देती कविताएं लिखो।