आज फिर
आज फिर
आज फिर सूरज की रश्मियां
और जीवन साथ साथ मिले
रंग उठा पूरा परिवेश
और खुल गया जीवन की
किताब एक पन्ना,
आस्था और विश्वास से भरा हुआ
कहने लगी अपनी कहानी
अजीब हाल है मेरा
कभी जीते जीते पथरा जाती हूँ
लावारिस सी
ठोकरें खाती हूँ
हंसूँ या रोऊँ
चुप रहूँ या चिल्लाऊं
गुजर जाते लोग दामन बचा के
अनदेखा करते हुए
और कभी जब मैं गुजर जाती हूँ
तो आदमी बनाता है
पत्थर की एक मूर्ति
स्थापित करता है उसे मंदिर के
गर्भ गृह में
और सुबह शाम हुजूम सा
दर्शनार्थ आता जाता रहता है।
आज तो कुछ दिलचस्प है
खुले हुये पन्ने की कहानी में
एक और मूर्ति बन रही है
उसकी कहानी का
अधूरा सा जिक्र है खुले हुए पन्ने में
वो भी मूर्तिवत ही।