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Amit Kumar

Abstract Classics Fantasy

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Amit Kumar

Abstract Classics Fantasy

आज बरसों बाद

आज बरसों बाद

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आज बरसों बाद ये सुबह देखा 

जैसे रोते को कहीं हँसता देखा।


दिन रात बीते और बीते महीने भी,

एक मुद्दत में आज आईना देखा।


सब भूले थे रोटी-वोटी के चक्कर मे,

भूख तो थी नही, जब आखिरी सपना देखा।


लालसा दिल मे थी कि कुछ तो कर लूँ मैं

पूरा हुआ सब, फिर भी अधूरा देखा।


बचपन से जवानी और बाद उसके भी,

रोज़ मर मरके भी खुद को जीता देखा।


समझे सदा सब, पर नासमझी ही रही,

अक्सर देर में खुद को समझते देखा।


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