आह्वान
आह्वान
कर्तव्यपरायणता
और ,जीवटता की मुख्यधारा ,
अन्तःपुर में सदा शून्य रही .
भावना के जुड़ाव में
तिल-तिल घटी .
प्रतिबद्धता की बारम्बारता
ओढ़े हुए .
ढोती रही स्वयं को.
किन्तु, मिला क्या?
मुठ्ठी में रेत और
आँखों में पानी ,
पुरस्कार मिले .
स्नेह और सम्मान नहीं
दुत्कार और तिरस्कार मिले.
कब तक?आखिर कब तक?
पुरुश्क्षेत्र में प्रेम खोजू ,
मारीचिका की भांति .
नहीं. अब और नहीं ,
आज,मैं एक स्त्री ,
आह्वान करती हूँ,
त्याग दिया मैंने वह अन्तःपुर ,
अब जुडकर स्वयं से
ये आशंका सदा के लिए त्यागी ,
कहीं बदल न दी जाऊं मैं,
सिलवट भरी चादर की भांति....!
