आधी रात का सफर
आधी रात का सफर


बहुत पहले की बात,
एक बार गया चलचित्र देखने
नौ से बारहा,
जैसे हुआ चलचित्र खत्म,
धीरे से निकला बाहर।
किया बाईक स्टार्ट,
बढ़ दिया मंजिल की ओर,
रुका एक जगहा पैट्रोल भरवाने,
वहां था बिल्कुल सुनसान,
मैंने दाएं देखा बाएं देखा,
आवाज लगाई,
किंतु कहीं से कोई बात न बन पाई।
मुझे होने लगा खटका,
कहीं गलत जगहा तो नहीं आ धमका,
फिर एक कोने से दरवाजा धीरे से खुला,
पैट्रोल पंप का मौन टूटा,
मेरे दिल की धड़कन हुई तेज,
रक्त चाप लगा बढ़ने।
तभी एक आकृति निकली,
उपर से नीचे तक काले गाऊन में सजी,
और एक अजीव सी आवाज में बोली,
आ रहा हूं,
थोड़ा रूको,
मैंने भगवान को याद किया,
सब कुछ ठीक रहने के लिए पाठ किया।
फिर वो आकृति धीरे धीरे आई,
मैंने हौसला किया और कहा,
पैट्रोल भर दे भाई,
उसने बाईक में पैट्रोल डाला,
मैं आगे बढ़ गया।
आगे रास्ते में आता था
कब्रिस्तान,
मैं आगे ही था परेशान,
जैसे ही उसके निकट पहुंच,
मुझे सुनाई दिया घंटा,
मैं जैसे जैसे आगे बढ़ा,
घटें की आवाज के नजदीक आता गया।
मेरी सीटीपीटी घुम,
सोचा आज तेरा चक्र खत्म,
बहुत हिम्मत की,
गले में माता के ताबीज को चूमा,
और बाईक को रोका।
पहले मन में आया,
चुपचाप आगे निकल जा,
परंतु मेरी मर्दानगी ने मुझे ललकारा,
और मैं धीरे धीरे
उस आवाज की ओर लपका।
मैंने हाथ में लिया एक डंडा,
जैसे तैसे मैं आगे बढ़ गया,
आवाज अधिक प्रखर होती गई,
फिर एक वक्त आया,
लगा मैं आवाज के पास पहुंचा,
मैंने अपने बचाव का प्लान बनाया,
और डंडें को हाथ में कसकर थामा।
मैंने जैसे ही डंडा उठाया,
वो ढैंचू ढैंचू चिल्लाया,
मेरा जोश और होश
दोनों रह गये धरे के धरे,
और हंसी के फवारे छूटने लगे।
मैंने देखा वहां एक गधा चर रहा था,
और मैं एक बेवकूफ बन रहा था।