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Churaman Sahu

Abstract

4.8  

Churaman Sahu

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मिट्टी का दीया

मिट्टी का दीया

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हर साल की तरह इस बार भी  दिवाली का त्योहार आने वाला है इस बार धूप अच्छी थी और बनाए दीये भी अच्छे से सुख गए हैं । अब आग की गर्म भट्टी में पका कर शहर में ले जाकर बेचना हैं । सारे दीये बिक जाए तो मुन्ना और मुन्नी के लिए नए कपड़े ख़रीदने का सोचते हुए दीपक घर पहुँचता है । 

 

घर पहुँचकर आवाज़ लगाता है ,,"खाने को कुछ मिलेगा ? "

इतना सुनते ही ज्योति रूखे स्वर में कहती है, "ये लो आज भात और चटनी ही है । "

यह देखकर दीपक पूछने लगता है "अरे! कोई सब्ज़ी नहीं है क्या ?"

ज्योति फिर सुनाते हुए कहती है, "कितने दिन पहले बाज़ार गए हो याद भी है, बाज़ार से लाए भी क्या हो चावल, नमक, तेल के साथ, एक किलो टमाटर क्या महीने भर चलेगा ?"

इतना सुनते ही दीपक को जो मिला उसको खाते हुए कहता है,"तुम सच ही तो कह रही हो। "

लेकिन तुम फ़िकर न करो इस बार दिवाली में सारे दीये बिक जाये तो बहुत ही अच्छा होगा । सभी के लिए नए कपड़े और मिठाई भी लेकर आऊँगा ।"


ज्योति को यक़ीन नहीं हो रहा था, वह कहती है "मुझे नहीं लग रहा है कि हमारी दिवाली भी अच्छी होगी ।वैसे भी गणेश और दुर्गा पूजा में जितनी मूर्ति बनाए थे ओ कम ही बिके । रंग में जो पैसा खर्च किया वह भी न निकल पाया है । सेठ जी सेउधारी किए हो ओ भी चुकाना बाक़ी है। अगर पैसा बचे तो पहले बच्चों के लिए कपड़े और मिठाई ले लेना । मुझे नई साड़ी की इच्छानहीं है।"


इतने में मुन्ना और मुन्नी खेल कर घर आ गए । अपने पिता से कहने लगा, "पिता जी मेरे दोस्त कह रहे थे उसके पापा इस बार उसके लि एबहुत सारे फटाके और नए कपड़े लेकर आएंगे ।क्या हमारे लिए भी ख़रीदोगे ? " मुन्नी माँ के गोदी में जाकर बैठ जाती है और कहती है, "माँ मुझे फ़टाखे नहीं चाहिए । मुझे तो बस सतरंगी चुनरी वाली सलवार ही ख़रीद देना ।"


बच्चों की बातें सुनकर दीपक कहता है, "इस बार सारे दीये बिक जाये तो सबके लिये नए कपड़े ले लेंगे ।"

अब सभी दीया को पकाने के लिए रखना है, बोलकर दीपक फिर से काम में लग जाता है । ज्योति भी बच्चों को खाना देकर काम में हाथबटाने आ जाती है । मिट्टी का दीया होता तो बहुत छोटा है मगर उसे बनाने में बहुत मेहनत लगता है । इस मेहनत के महत्व को स्वयं बनाने वाला ही समझसकता है सही मिट्टी लाकर उसे बारीक करना, भिगोना और फिर चाक में रख कर उंगलियों की कलाकारी से सुंदर रूप देना होता है । फिर अच्छे से सुख जाने के बाद भट्टी में पकाया जाता है ।कुछ दिनो बाद दीये पक कर तैयार हो गए ।


दीपक सारे पके दीयों को देखकर खुश हो जाता है । बड़े प्यार और जतन से सभी को दो टोकरी में सजाता है, ध्यान रखता है एक भी दीया न टूटे ।सुबह एक टोकरी को साइकिल में रखकर दीपक शहर को चले जाता है । ज्योति भी मुन्ना और मुन्नी को खाना देकर एक टोकरी सिर में रखकर पास के गाँव में चली जाती है ।

दीपक शहर पहुँचकर चौराहे में साइकिल खड़ा कर लेता है ।आते-जाते लोग देख रहे थे कोई रुककर भाव पूछ लेता, कोई कम पैसों में देने की बात करता पर खरीदने में किसी को कोई विशेष रुचि नहीं थी।

 त्योहार चार दिन ही बाकि था इसलिए कम लोग ही ख़रीद रहे थे । जो ख़रीद रहे थे वो बोलकर एक दो दीया मुफ़्त में ले जा रहे थे, दीपक दे भी देता सोचता कैसे भी हो बिक तो जाए ।


उधर ज्योति भी गाँव के गली में घूम घूमकर आवाज़ लगा रही थी, दीया ले लो दीया । आवाज़ सुनकर आसपास की सभी महिलाएं आजाती हैं, दिवाली का त्योहार है, बहुत दीया लगता है बोलकर ख़रीद भी लिए। पूरा गाँव घूमने के बाद कुछ ही दीया बच गया । सूरज भी ढलने वाला था ज्योति घर वापस आ जाती है । घर पहुँचकर मुन्ना, मुन्नी को देखकर उन्हें अच्छा लगता है। मुन्नी पानी लाकर देती है येलो माँ पानी पी लो ।


दीपक शहर से घर जाने को निकलता है । आधे से ज़्यादा दीये अभी भी बच गए हैं यह सोचते हुए दीपक घर पहुँच जाता है ।


घर पहुँचते ही बच्चे दौड़ कर साइकिल के पास पहुँच जाते हैं, उन्हें लगता है पिता जी शहर गए थे तो नए कपड़े और फटाके लाए होंगे । मुन्ना से रहा न गया वो पूछ ही लेता है, पिता जी मेरे नए कपड़े और फ़टाके लाए क्या ?


दीपक मुन्ना की बात सुनकर कहता है मुन्ना अभी त्योहार तीन दिन बाक़ी है । आज समोसा लाया हूँ ओ खा लो कपड़े त्योहार के पहले लेकर आ जाऊँगा । ज्योति पानी लाकर देती है और पूछती है पूरा बिक गया क्या मैं तो पास के गाँव गयी थी लगभग पूरा बिक गया ।कल दूसरे गाँव जाऊँगी ।


दीपक, मेरा टोकरी तो आधा भी ख़ाली न हुआ । वहाँ दीये बेचने वाला कोई और भी आ गया था । उसके दीये का रंग चमकदार और डिज़ाइन भी आकर्षक था । मेरे से ज़्यादा भीड़ वहाँ लगा था । कोई बोल रहा था ओ चाइना दीया है ।


ज्योति,कल तुम भी पास के दूसरे गाँव में चले जाना । हमारे दीयों को गाँव वाले पसंद भी करते हैं और हर साल अच्छे से ख़रीद भी लेते हैं।

 

सुबह होते ही दीपक दोनो की टोकरी को पूरा भरकर रख देता है,ज्योति खाना बना लेती है । सभी मिलकर खाना खा लेते हैं । मुन्ना और मुन्नी को घर में खेलने को बोलकर दीपक और ज्योति अलग अलग गाँव चले जाते हैं । ज्योति गाँव के गली पहुँचते ही आवाज लगाती है। दीया ले लो दीया । 


दीपक जिस गाँव में पहुँचा वहाँ शाम को हाट (बाज़ार) लगने वाला था, साइकिल में रखे टोकरी को उतार कर फिर से घर आया और जितने भी दीये बचे थे सभी को ले जाकर बाज़ार में सजा कर रख देता है । दोपहर ढलते ही लोग पहुँचने लगते हैं । कुछ आते भाव पूछते, कुछ ख़रीद भी लेते । शाम होते-होते दीपक का सभी दीया बिक जाता है ।

त्योहार पास था तो ज्योति का भी सभी दीया बिक जाता है । वह आज बहुत खुश थी । वापिस घर पहुंचती है ।कुछ देर बाद दीपक भीघर पहुँच जाता है ।दीपक भी बहुत खुश था । आज उसका मेहनत सफल हुआ ।

बच्चे साइकिल के पास दौड़कर पहुँच जाते है । थैला खोलते हैं उसमें मुन्ना के लिए कपड़े,मुन्नी के लिए सलवार और ज्योति के लिए साड़ी भी था । कुछ फटाके और मिठाई भी । ज्योति साड़ी देखकर खुश हो जाती है ।


दीपक, "इस बार हमारी दिवाली भी अच्छी होगी । सारे दीये जो बिक गए। कल शहर जाकर सेठ जी को रंग का बकाया पैसा भी चुका दूँगा।"



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