अंगूर
अंगूर
शहर में देश के सुविख्यात ग्रुप का आधुनिक सुविधाओं से संपन्न अस्पताल साल भर पहले से ही प्रारम्भ हुआ था। नव निर्मित अस्पताल से निकटतम बस स्टैंड तकरीबन डेढ़ किलोमीटर था। जिन के पास स्वयं के वाहन नहीं होते थे , ऐसे मरीजों और उनके परिजनों को बस स्टैंड तक पैदल ही जाना पड़ता था।
परीक्षित सचिवालय में कैंटीन चलाता था। वह घर से सचिवालय जाते समय प्रतिदिन इस अस्पताल के सामने से ही गुजरता था। कभी कभार कोई लिफ्ट मांग लेता तो वह उसे बस स्टैंड तक छोड़ देता था ।
एक दिन प्रतिदिन की भांति जब वह अस्पताल के सामने से गुजर रहा था। एक महिला ने, जिसके हाथ में कुछ पेपर बैग थे, लिफ्ट के लिए हाथ दिया। परीक्षित ने गाडी रोक दी। महिला शुक्रिया अदा करते हुए गाडी में बैठ गयी।
"आप कहाँ जा रहे हैं?” महिला ने पेपर बैग डैश बोर्ड पर रखते हुए पूछा।
"मैं तो सचिवालय जा रहा हूँ । आपको कहाँ जाना है?"
"मैं महेशनगर में रहती हूँ।"
"मैं आपको महेशनगर तो नहीं लेकिन उसके पास पुलिया पर छोड़ दूंगा। आप चाहे तो वहां से पैदल चले जाऐं या फिर कोई बस पकड़ लेना।"
"बहुत शुक्रिया आपका। आप मिल गए नहीं तो इस गर्मी में बस स्टैंड पहुँचते पहुँचते जान निकल जाती है।"
"कोई बात नहीं ...... आपको आपत्ति नहीं हो तो क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ?"
"राशिदा”
कुछ देर शांति के बाद राशिदा ने पेपर बैग की तरफ इशारा करते हुए पूछा
आप अंगूर लेंगे ?"
"नहीं मैं डायबिटिक हूँ।"
बातें करते करते परीक्षित और राशिदा पुलिया के पास पहुंच गए थे। परीक्षित ने कार रोक दी। राशिदा ने कार से उतरते हुए शुक्रिया कहा और परीक्षित से पूछा "आप मेरे मोबाइल नंबर ले लीजिये।"
"नहीं, मुझे कोई आवश्यकता नहीं है और एक बात कहूँ ...आप से या आपके पेशे से मुझे कोई शिकायत नहीं है पर मेरी आप से एक प्रार्थना है कि आप इसके लिए अस्पताल जैसे सेवा के संस्थान का सहारा न लें। नहीं तो फिर कभी कोई किसी जरूरतमंद मरीज या परिजन को सहारा नहीं देगा।"
राशिदा का चेहरा एकदम से उतर गया। उसके मुंह से एक ही शब्द निकला "सॉरी"।
उसके बाद राशिदा फिर नज़र नहीं आई लेकिन लगभग दो तीन महीने बाद एक दिन हमेशा की तरह जब परीक्षित अस्पताल के सामने से सचिवालय के लिए जा रहा था तो उसने देखा कि राशिदा अस्पताल से बस स्टैंड की तरफ पैदल पैदल जा रही थी। उसने अस्पताल की परिचारिका की ड्रेस पहन रखी थी। परीक्षित ने गाडी रोकी और उससे कार में बैठने का आग्रह किया। राशिदा ने एक दो बार मना किया लेकिन आखिर में परीक्षित के आग्रह पर वह मान गयी।
"फिर अस्पताल?" परीक्षित ने कटाक्ष के लहजे में पूछा।
"हाँ अस्पताल, मैंने अस्पताल में परिचारिका के रूप में सर्विस ज्वाइन करली है। क्या मुझसे अब भी शिकायत है आपको?"
"क्या! ....अरे क्या बात है! अस्पताल में काम करना तो इश्वर की सेवा के समान है।"
"अंगूर लेंगी?" अंगूर वाले की रेहड़ी के पास गुजरने पर उसने राशिदा से पूछा ।
"अंगूर के बहाने ताना दे रहे हो..?"
"नहीं । मैं गम्भीर हूँ।"
"नहीं... और वैसे भी आपको तो डायबिटीज है।"
"तुम्हारी याददाश्त तो गजब है और वो.... वो तो मैंने उस समय किसी अनजान से कोई खाने पीने की वस्तु नहीं लेने का सोचकर बहाना बनाया था और अब तो तुमसे से जानकारी हो ही गयी है, हा … हा …। वैसे महेशनगर में कहाँ रहती हो? "
" सेंट्रल एकेडमी स्कूल के पास।"
थोड़ी देर बाद पुलिया आ गयी थी। राशिदा उतरने के लिए अपना सामान समेटने लगी।
"चलो मैं तुम्हें घर छोड़ देता हूँ।"
"नहीं मैं बस पकड़ कर चली जाउंगी।"
"क्यों कोई नाराजगी है मुझसे?"
"आपसे कैसी नाराज़गी, आप ही तो एक इंसान मिले इस दुनिया में।"
परीक्षित ने गाडी महेशनगर की ओर मोड़ दी। रास्ते में सेंट्रल एकेडमी स्कूल आने पर उसने परीक्षित को रुकने के लिए कहा। राशिदा के उतरते ही छह सात साल का बच्चा उसके पास आ गया।
ये मेरा बेटा है "शमीम"
"प्यारा नाम है।”
शमीम को लेकर तीनों राशिदा के घर पहुंचे।
राशिदा को छोड़ कर परीक्षित जाने लगा ।
“चाय नहीं पीओगे?” राशिदा ने आग्रह पूर्वक पूछा।
राशिदा ने चाबी निकाल कर मकान का दरवाजा खोला। मकान छोटा लेकिन साफ सुथरा था।
थोड़ी देर में राशिदा चाय लेकर उपस्थित थी। चाय पीते पीते उसने शमीम के पिता के बारे में पूछा।
“ऑटोपार्ट्स की दूकान थी लेकिन एक दिन दूकान से आते समय एक कार की चपेट में आगये।"
"ओह्ह।"
"आप क्या करते हैं?”
"सचिवालय में कैंटीन चलाता हूँ।"
"चाय बहुत अच्छी है।"
“हाँ कैंटीन से तो अच्छी ही होगी … हा हा …"
परीक्षित ने चाय पीकर रवानगी ली।
एक दिन ऑफिस जाते समय फिर राशिदा मिल गयी। परीक्षित ने गाडी रोक दी। परीक्षित के साथ छोटी बच्ची देखकर उसने पूछा " आपकी बेटी है?"
“हाँ।"
"बड़ी प्यारी बेटी है। क्या नाम है?”
"ऋचा, इसकी स्कूल की छुट्टी होती है तो मैं इसे साथ ले जाता हूँ कैंटीन में खेलती रहती है।"
“बेटी को पापा से लगाव होता ही है।”
“इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है।"
“क्या मतलब?"
“इसकी माँ को हमें छोड़कर कर भगवान के पास गए दो साल हो गए।"
“ओह्ह।"
"आप को दिक्कत नहीं हो तो आप मेरे पास छोड़ कर जा सकते हैं। जाते समय ले जाइयेगा।"
परीक्षित ऋचा को राशिदा के घर छोड़ कर चला गया। शाम को लौटते समय परीक्षित ऋचा को लेने राशिदा के घर पहुंचा। ऋचा शमीम के साथ खेलने में व्यस्त थी। पापा को देखते ही बोली " पापा, शमीम भैया बहुत अच्छा है। आज हमने खूब मजे किये। आंटी ने हमें आइसक्रीम भी खिलाई। "
“अंकल इसका ध्यान रखो बहुत आइसक्रीम खाती है।" शमीम ने हँसते हुए कहा ।सुनते ही ऋचा शमीम को मारने दौड़ी। शमीम आगे आगे और रिचा पीछे पीछे।
पीछे से परीक्षित ने राशिदा से कहा क्या " मैं आपके नंबर ले सकता हूँ?"
राशिदा ने शर्म से लाल हुए गालों और नज़रो को बचते हुए शमीम को जोर से आवाज लगाई "शमीम बहन को तंग नहीं करते" ।