विधवा धरती
विधवा धरती
साम्प्रदायिक दंगे अपने पीछे छोड़ गये थे सुनसान रक्त रंजित सड़कें, दर्द से चीखते घर, उजाड़ शहर और बसते हुए श्मशान और कब्रिस्तान। उसे हमेशा से याद था कि उसकी सात वर्ष की आयु में ही उसके पिताजी स्वतंत्रता संग्राम में शहीद हो गये, उनकी शहादत के तीन वर्ष बाद देश स्वतंत्र हो गया था। वो यही समझता था कि पिताजी भारत माँ को सदा सुहागन का आशीर्वाद देकर गए हैं।
शहर के हालात देखकर आज उससे रहा नहीं गया, वो कर्फ्यू के बावजूद भी तीन साड़ियाँ लेकर बाहर निकल गया, और ढलती उम्र में भी किशोरों की तरह जाने कैसे छुपते-छिपाते शहर के एक बड़े चौराहे पर पहुँच गया। वहां जाकर उसने पहली साड़ी निकाली, वो केसरिया रंग की थी, उसने उसमें आग लगा दी।
फिर उसने दूसरी साड़ी निकाली, जो कि हरे रंग की थी, उसने उसमें भी आग लगा दी।
और तीसरी सफ़ेद रंग की साड़ी निकाल कर उसमें खुद का मुंह छिपा दिया।
तब तक पुलिस वाले दौड़ कर पहुंच गये थे, उनमें से एक चिल्ला कर बोला, "क्या कर रहा है? आगजनी कर रहा है?"
उसने चेहरा साड़ी से निकाला, उसकी लाल सुर्ख आँखों से पानी टपक रहा था, भर्राये स्वर में उसने कहा, "ये मेरी माँ की साड़ियाँ हैं, जो जल रही हैं अब बस यही बची है ।" उसने सफेद साड़ी दिखाते हुए कहा।
"पागल है? यहाँ पूरे शहर में आग लगी है और तुम माँ की साड़ी को रो रहे हो। कौन है तुम्हारी माँ?"
उसने कुर्ते के अंदर से तिरंगे की साड़ी पहने भारत माँ की तस्वीर निकाली और उसे सिर पर लगा फफकते हुए कहा, “माँ फिर विधवा हो रही है, उसे बचा लो पिताजी!”