काश वक़्त थम जाता
काश वक़्त थम जाता
'दादू, दादू, चलो न घोला बनो न। मुझे टकबक टकबक करना है’, नन्हे मोनू ने अपनी मीठी तोतली बोली में रामजस जी से कहा था।'
'नहीं बेटा, दादू की तबियत ठीक नहीं। पापा के साथ खेलो जाकर,' मोनू की दादी ने उससे कहा था। 'अरे सावित्री, अब तो चला चली का वक़्त है। जो सांसें बची हैं उन्हें तो हंसी खुशी जी लूँ। आओ बेटा, मैं बनता हूँ घोड़ा', और मोनू आह्लादित स्वरों में किलकारी मारते हुए दादू की सवारी करने लगा था। और घोड़ा बने हुए रामजस जी को पोते के साथ यूं हंसते खेलते लग रहा था मानो ज़िंदगी में और कोई तमन्ना शेष नहीं रही थी। कि तभी पत्नी के चेहरे पर बहते आंसुओं ने उन्हें यथार्थ के धरातल पर धकेल दिया था और अगले ही क्षण वह गहन हताशा के बियाबान में भटकने लगे थे। वह सोच रहे थे ''और कितने दिन अपने सुखी संसार की खुशीओं के बीच रह पाऊँगा?' सुशीला, सरला अर्धांगिनी, कमाऊ, लायक बेटा, बेटी जैसी बहू, पोता पोती, धन दौलत, प्रतिष्ठा, क्या कमी थी उनके सोने के संसार में?
लेकिन जवानी के दिनों में शराब के अलावा उन्हें और कुछ सूझता ही कहाँ था? वह तो बरसों शराब के नशे में डूब अपनी सांसों का सौदा करते गए थे। माँ, पत्नी, बच्चों के आँसू, मनुहार सबको नज़रअंदाज़ कर वह रोज़ शाम को बेहताशा शराब पीते। और कुछ ही वर्षों में उनके लीवर ने जवाब दे दिया। और अभी कल ही तो उन्होनें अपने डाक्टर को बेटे से कहते सुना था, 'आपके पिता के दिन अब गिने चुने हैं। अब कभी कुछ भी हो सकता है।'
वह सोचने लगे, ‘काश, मैं घड़ी की अनवरत घूमती सूइयों को सदा के लिए थाम पाता और ये वक़्त ठहर जाता। कितना दिव्य आनंद आ रहा है इस खेल में। मन कर रहा है मैं यूं ही उसके साथ हमेशा खेलता रहूँ लेकिन अब पछताए क्या होत जब चिड़िया चुग गई खेत। अब तो सबके मोह की डोर तोड़ कर मुझे अपनी अनंत यात्रा पर जाना ही होगा, कहीं कोई रिहाई नहीं,’ और गहन पछतावे के आँसू उनकी आँखों से ढुलक पड़े थे।