आखिरी मुलाकात
आखिरी मुलाकात


मैं उन्हें अपना बड़ा भाई मानता था। वे भी मुझे छोटे भाई -सा दुलार देते थे। खून का रिश्ता तो नहीं था हमारा। मगर किसी दैवीय शक्ति से एक दूसरे से गहरे तक जुड़े थे हम। मैंने नयी-नयी सरकारी नौकरी ज्वाइन की थी। मेरी पोस्टिंग बक्सर में थी। वे मेरे सीनियर थे।
राज्य के सुदूर दूसरे छोर के रहने वाले थे। इस शहर के बारे में जानते तक नहीं थे। न इधर आने के बारे में कभी सोचा था। मेरे घर से थोड़ी दूरी पर वे एक किराये के मकान में रहते थे। हम अक्सर साथ-साथ ड्यूटी पर जाते। आफिस में वे मुझ पर पूरा ध्यान रखते। सरकारी विभाग के नियम-कानून, कार्यशैली के बारे में अक्सर मुझे बताते-समझाते। मुझे किसी काम में परेशान देख ,पता नहीं कैसे वे भांप जाते थे। उठकर मेरे पास आते। पूछते। कागज-कलम ले मेरे काम को दुरूस्त करने में लग जाते। मैं चकित हो, बस उन्हें देखता रह जाता। काम पूरा कर,वे मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए मुस्कुराकर कहते- "बस, हो तो गया।" मैं 'धन्यवाद ' कहता, तो वे गले लगा लेते। आफिस से लौटने के बाद, शाम को कभी मैं उनके घर जाता, कभी वे मेरे घर आते। साथ-साथ हम चाय पीते। यह अनवरत सिलसिला निर्बाध चलता रहा।
चुनाव कार्य में हमारी ड्यूटी पड़ती थी। यह बड़ा विचित्र संयोग था कि अक्सर हम साथ-साथ ही होते। वे मुझे मतदान कार्य सम्पन्न कराने की पूरी प्रक्रिया समझाते। मेरा पेपर वर्क कर मुझे सिखाते। प्रेम से डांटते भी। वे मेरे बिना और मैं उनके बिना नहीं रह पाते। वे कहा करते- हम किसी जन्म में जरूर भाई-भाई रहे होंगे। तभी ईश्वर ने फिर हमें मिला दिया है। वे बिस्कुट-मिक्सचर-चूड़ा साथ रखते और बड़े प्यार से मुझे खिलाते-खाते।
तीन वर्ष के बाद मेरा ट्रांसफर दूसरे शहर में हो गया। मैं सुबह निकलता तो लौटते-लौटते रात हो जाती थी। हम रोज मिल नहीं पाते थे। मोबाइल का जमाना नहीं था। मुझे पता चलता- वे घर आकर माँ-पत्नी-बच्चों से मेरे बारे में पूछकर आश्वस्त हो,चले जाते थे।
शनिवार को मैं थोड़ा पहले आ जाता था। शाम को वे भाभी के साथ बैठकर अपने घर पर बेसब्री से मेरा इंतजार कर रहे होते थे। मैं नियमित रूप से शाम पाँच बजे उनके घर पहुंचता था। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर चमक आ जाती थी। मैं उन्हें प्रणाम करता,तो वे उठकर मुझे गले लगा लेते। भाभी विह्वल नेत्रों से भाई-भाई का यह निश्छल प्रेम निहारती रहतीं। हम तीनों साथ बैठ कर चाय पीते थे। कभी भाभी बड़े प्रेम से भूंजा बनाकर
लातीं थीं। देर तक ढेर सारी बातें होतीं थीं।
फिर......प्रोमोशन के साथ उनका ट्रांसफर हो गया। बिछुड़ने की पीड़ा से मन थोड़ी देर को दुःखी हुआ। मगर मैंने मन को किसी तरह समझाया। उस दिन जब उन्हें शहर छोड़कर हमेशा के लिए जाना था, स्टेशन पर ट्रेन के इंतजार में मैं उनके साथ था। वे मुझे देखते, मैं उन्हें देखता। चश्मे के पीछे उनकी आँखों से बहते आँसू देख, मेरा जी भर आया था। भाभी की आँखें भी डबडबा गयीं। न जाने रिश्ते की कौन सी डोर थी,जो हमें बाँधे जा रही थी ! ट्रेन आई। सारा सामान चढ़ाकर, उनके चरण स्पर्श कर चलने को हुआ, तो उन्होंने हाथ पकड़ मुझे भी ट्रेन में खींच लिया। बगल में बिठाया। मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा- " हम फिर कब मिलेंगे ?" मैंने उनकी आँखों में देखते हुए कहा- "बहुत जल्दी, भैया।" और अपने आँसुओं को रोकने का निरर्थक प्रयास करता हुआ मैं ट्रेन से नीचे उतर गया। ट्रेन खुल गयी, तो नजरों से ओझल होने तक, मैंने देखा, वे खिड़की से हाथ हिला रहे थे। यह हमारी आखिरी मुलाकात थी।
उनके जाने के बाद फोन से बातें होती थीं। मेरा कुशलक्षेम जान उन्हें सूकून मिल जाता था। अचानक एक दिन मुझे सूचना मिली कि हृदयगति रुकने से उनका देहान्त हो गया है। बरसों से संचित और सिंचित निःशब्द भावनाएँ आँसू बन आँखों में उतर आईं। श्राद्ध में मैं उनके गाँव गया। भाभी ने मुझे देखते ही मेरा हाथ पकड़कर पूछा- "आपके रामजी कहाँ गये ? " वे मुझे अपना "लक्ष्मण" कहती थीं। और कहा- "रोना नहीं है। उन्हें दुःख होगा।" भाभी के शब्द मुझे भावनाओं की उन अतल गहराइयों में ले गये, जहाँ शब्द गौण हो जाते हैं, सिर्फ अहसास और संवेदनाएँ जिंदा रहती हैं। मुझे याद नहीं, उस समय कैसे मैंने अपने आँसुओ को रोका था। उस दिन मैंने महसूस किया- कुछ रिश्ते इंसानी जहाँ से परे होते हैं। दैवीय शक्ति से बंधे होते हैं। सचमुच, वे मेरे अपनों से भी अपने थे। उनका प्रेम निःस्वार्थ, निश्छल था। उनके गाँव के लोग कहा करते थे- वे इंसान नहीं,देवता थे। उनके शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं। उन्हें मैं आज भी अपने आसपास महसूस करता हूँ और मुझे विश्वास है - वे जहाँ भी हैं, मुझ पर स्नेहिल नजर रखे हुए हैं। उनको गये दस साल से ऊपर हो गये। आज भी भाभी और बच्चों से बातचीत होती है। आज भी वे मेरे 'राम' हैं, और मैं उनका 'लक्ष्मण'- जीवन के शर-संधान में लगा। वे सदा मेरे साथ हैं - मेरी स्मृतियों में ! मेरे कर्मों में !