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देसी स्वाद

देसी स्वाद

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घंटा मंदिर का नहीं पिज़्ज़ा हट का था। दिनेश जी ने बेटी से पूछा कि "यहाँ घंटा किसलिए टंगा है ?"

"पापा,अगर पिज़्ज़ा अच्छा लगे तो इसे बजा कर बाहर निकलना है।" बेटी ने पापा को समझाया। कभी जिसकी ज़िद पर कि "पापा मुझे भी बजाना है।" गोद मे उठाकर बजवाते थे। वही बेटी आज बीस वर्ष बाद कॉरपोरेट कल्चर के नए रिवाज़ समझा रही थी। परंपरा उल्टी हो गयी थी, घुसने पर नहीं निकलने पर बजाना है। दिनेश जी ने भी नए जमाने की हवा के साथ-साथ और घटा के संग-संग चलने का आश्वासन "हाँ बेटा" कहकर दे दिया।

अनमने से प्रवेश करने पर पत्नी आरती ने झिड़का भी था कि "क्या रोज़-रोज़ दाल चावल साग रोटी खाना, कुछ चेंज भी होना चाहिए। तुम्हारे इसी नज़रिए की वजह से कितने दिनों से क्वालिटी टाइम नहीं जिया।"

दिनेश जी के एक व्यापारिक मित्र का परिवार भी साथ था। पार्टी उन्हीं की तरफ से थी। उनके आठ वर्षीय पुत्र की हर नादानियाँ, शैतानियाँ माफ थीं क्योंकि उसी के जन्म के बाद व्यापार में उछाल आया था। बड़ी बेटी शिष्ट व शालीन थी। पत्नियों की आपस मे अच्छी घुट रही थी। बच्चों की फरमाइश पर कुछ एक्स्ट्रा चीज़ वाले पिज़्ज़ा आर्डर किये गए।

दिनेश जी को लगा जैसे कोई थेगड़ा सा कहीं चिपक गया है जो उठने-बैठने, हँसने-बोलने में आफत पैदा कर रहा है लेकिन वो तो अंदर-बाहर, ऊपर नीचे, आगे-पीछे कहीं भी नहीं था। लगा जैसे वो एक्स्ट्रा चीज़ में ही लिपड़-चिपड़ हो गया है।

"अरे ओ बिनेसिया, ले खा ले" अम्मा की एक आवाज़ कहीं अवचेतन से गूँजती हुई आयी।" अरे नहीं अम्मा, तुम इन एसकेलेटर पर नहीं चढ़ पाओगी, तुम्हारा ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा।"

"अरे,बिनेसिया तू क्या हमें ऊपर चढ़ाएगा !" हम तो बिना इन सीढ़ियों के ही ऊपर पहुँच गए।"

गाँव मे चूल्हे पर अम्मा के बनाये हुए फुल्के और यह कहना कि "ले और खा ले।"कितना कुछ एक्स्ट्रा था ज़िन्दगी में, जाने कहाँ खो गया। दादी होतीं तो एक टुकड़ा गाय के लिए, एक कुत्ते के लिए निकालतीं फिर अंचली छोड़ कर भोग लगाकर खातीं। इनके लिए यहाँ कुछ नहीं था मगर प्रत्येक टुकड़े में से जी.एस. टी.में स्वतः जाता हुआ दिखा।

बाबा होते तो इस मॉल में धोती कुर्ते वाले एकमात्र व्यक्ति होते और ज़रूर पूछते कि "ये मांसाहारी तो नहीं है?" मैं सामने के.एफ.सी.को दिखा कर बताता "नहीं वो मांसाहारी है।" नज़ीर अकबराबादी भी होते तो बोलते "टुकड़े चबा रहा है, वो भी है आदमी और यहाँ टुकड़े चबा रहा है वो भी है आदमी।"

टुकड़ों के लिए जब ढाई हजार का बिल दोस्त ने व्यापारिक ठसक के साथ चुकाया तो घंटा बजाने के लिए दिनेश जी का हाथ घंटा नहीं उठ सका।

"कहाँ खो गए ?" पत्नी आरती की आवाज़ से दिनेश जी की तंत्रा भंग हुई। वो चिंतित हो उठे, अब श्रीमतीजी ज़रूर सुनाएंगी "पता नहीं क्या खा कर तुम्हारी माँ ने तुम्हें पैदा कर दिया और मेरे सर मढ़ दिया। जहाँ गंभीर रहना चाहिए वहाँ हँसी-मज़ाक और जहाँ चार लोगों के बीच बैठकर बात करनी चाहिए वहाँ तुम्हारा मुँह लटक जाता है।"

इस थेगड़े का भी कुछ न कुछ नाम तो ज़रूर होगा ! हाँ, है न ! घर लौटकर दाल चावल के साथ आम का अचार डालकर खाने से मिली तृप्ति ने बताया- इसका नाम है देसी स्वाद।


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