टूटती आशाएँ
टूटती आशाएँ
ट्रेन अपनी रफ़्तार से भागी जा रही थी। सारी हरियाली, खेत, मकान सब पीछे छोड़ते हुए । इसी तरह निमिषा जो की हमेशा फर्स्ट ए.सी., सेकंड ए.सी. या फ़्लाइट से चलने वाली आज सेकेण्ड क्लास में खिड़की की सीट पर बैठी एकटक बाहर को देख रही थी।
ट्रेन का सरपट आगे निकलना और चीज़ों का पीछे छूट जाना।
थक गई तो अपनी ओर की खिड़की बंद कर दोनों पैरों को सीट पर रख कर आँखें बंद कर सिर पीछे टिका लिया। ट्रेन की रफ़्तार अब उसके यादों में दौड़ने लगी। वो भी तो सब कुछ पीछे छोड़ कर जा रही है !
बहुत ख़ुशहाल बचपन बिताया उसने। कभी दुःख नहीं देखे। कम उम्र में शादी हो गई। हालांकि उसके पापा बिलकुल ख़िलाफ़ थे इस शादी के, क्योंकि लड़के का अपना कोई नहीं था।
माता, पिता, भाई ,लेकिन माँ ने पता किया तो बताया रिश्तेदारों ने, कि ऐसी कोई बात नहीं, उसके ताऊ और ताई उसे अपना ही बेटा कहते हैं और कोई भेदभाव नहीं करते। लड़के को भी जब वो हाई स्कूल का फॉर्म भर रहा था तब पता लगा !
निमिषा ससुराल पहुँची तो सचमुच उसे एहसास नहीं हुआ की वो अलग है। सबने इतना प्यार दिया की एक महीने बाद वो मायके जाने लगी तो रोने लगी। पति थोड़े अक्खड़ स्वाभाव के थे और माता पिता के न होने से कोई जल्दी डाँटता भी नहीं, तो एक तरह से मनमानी करने की आदत थी।
निमिषा ने यही सोचा- मैं इनको इतना प्यार दूँगी, ख़्याल करुँगी कि सही हो जायेंगे। वो सारे भाई-बहन से दिल से प्यार करते लेकिन ऐसा कड़वा बोलते की सब बिदक जाते !
निमिषा ने सबके बीच तालमेल बैठाने और प्यार लाने की ठानी। इसके लिए उसने दिल से हर किसी का ख्याल रखा। जो कुछ उससे हो सकता था अपना और अपने दोनों बच्चों का ख़्याल छोड़ कर किया, और इसका प्रतिफ़ल भी मिला। सब उसको मानने लगे, उसकी इज़्ज़त करे लगे और उससे प्यार करने लगे !
लेकिन उसके पति देव ने कभी नहीं समझा उसको। न ही उसकी सेवा को। रोज़ तरह-तरह का खाना खिलाने, उनके जूते पॉलिश करने, से जुड़े सभी काम किये पर कभी तारीफ़ के दो लफ्ज़ बोलना तो दूर नुक्स ही निकालते रहे।
उल्टी-सीधी बातें बोलते। इस बीच शराब की लत भी लग गई। फ़िर तो नशे में झगड़ना, कभी हाथ उठाना सब होने लगा। कभी-कभी बीच में प्यार जताने की कोशिश करते लेकिन निमिषा को वो आडम्बर ही लगता। सिर्फ़ शारीरिक जरुरत को पूरा करने का बहाना !
ऐसे धक्के खाते ज़िंदगी चलती रही। उधर उसके मायके में जाने कौन सी नज़र लगी की उजड़ता ही गया !
बच्चे बड़े हो गए। निमिषा बीमार रहने लगी। जाने पति के क्या मन में आया की शराब छोड़ दी और बिलकुल सज्जन इंसान बन गए। निमिषा भी ख़ुश रहने लगी। दोनों बच्चों की शादियाँ हो गईं। एक बेटा और बहू बाहर चले गए !
पतिदेव को जाने कैसे फ़िर पीने का चश्का लग गया। फ़िर वही कटुता घर में लेकिन अब निमिषा ने ठान लिया की मैं अब एक शराबी को अपना हाथ तक नहीं पकड़ने दूंगी। बाकी बातें तो दूर मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से वो कमज़ोर हो गई। बहू भी अच्छे स्वाभाव की नहीं। बिल्कुल ख़्याल नहीं करती। ये सब तो एक रूटीन की तरह वो बर्दाश्त कर रही थी !
फ़िर धीरे-धीरे उसे ये एहसास अंदर-अंदर खाने लगा। मेरे अपने जिनके लिए मुझसे जो हो सकता था सब किया ।दिल से प्यार किया। धीरे-धीरे ही सही, वो अपना-पराया की ओर अग्रसर हैं। मेरी किसी ख़ुशी से वो ख़ुश नहीं होते। मेरे दुःख से दुखी नहीं होते। अपने में मस्त रहते हैं।
इन सब लोगों के लिए मैंने पति से झगड़े किये। अपने बच्चों को उनसे नीचे रखा। ये बातें निमिषा को दर्द की शिद्दत तक पहुँचा दिया। हर बात से हर किसी से उसका मोह भंग हो गया। नतीज़ा ये था की आज वो कभी वापस न आने के लिए ट्रेन में थी !
आंखें बंद और कोरों से आँसू बहे जा रहे थे। अब वो सोच रही थी की भाई के पास जाऊँ या किसी आश्रम जाऊँ। भाई के पास तो फिर वही दुनियाँ का चक्कर। घर वाले भी पहुँच जायेंगे। उसने तय कर लिया कि वो आश्रम ही जाएगी। जो थोड़े बहुत शरीर पर गहने हैं आश्रम में बेच कर पैसा जमा कर दूँगी। कितनी ज़िंदगी ही बची है आराम से रह लूँगी !
कम से कम अनचाही अपेक्षाएँ और उम्मीद किसी से नहीं होगी और न बार बार ठेस लगेगी !
वो आँखे खोल वॉशरूम गई, मुँह हाथ धोकर आई। अब उसके चेहरे पर कोई असमंजस नहीं था। एक दृढ़ता थी..........