कुछ यादें मेरे बचपन की
कुछ यादें मेरे बचपन की
भाग 2 .....
आइए मेरे साथ मेरे बचपन की कुछ यादों के सैर पर आज की बेढ़ंगी दुनिया से हट के कुछ मासूम शरारतों और प्यार भरे पलों में ~~~
हे बच्ची उतरी आओ नहीं अबै परधान जी आई जइहै तौ हमहीं कां डटिहैं आपका तो कुछ कहिहैं नाहीं ! ये दृश्य आम के बगीचे में आम के पेड़ पर चढ़ी आठ नौ साल की बच्ची का था। नीचे हलवाहा चिल्ला रहा था- लड़की वो मैं, बचपन में मुझे कभी घर में आया हुआ या अपने पेड़ों से तोड़ कर खाने में गाँव पर मज़ा नहीं आता था और प्रधान जी मेरे छोटे बाबा के इकलौते बेटे थे वो जरा कुड़ कुड़ ज्यादा करते तो मैं जानबूझ कर उन्हीं के पेड़ो और खेतों में घुसती थी। मैं जब पेड़ पर चढ़ी तो मेरे दोनों छोटे भाई और मेरे साथ रहने वाले चाचा के दोनों बेटे भी भाग गए क्योंकि उन्हें तो मार पड़ जाती, मेरे खानदान में मेरे बाद कोई लड़की ही नहीं थी तो साथ भाइयों का ही था तो मैं भी गुड़िया वग़ैरह नहीं खेलती ऐसी ही शरारतें किया करती थी ! अभी मैं पेड़ से उतर ही रही थी कि उदय प्रताप काका (प्रधानजी) आ गए जोर की डाँट लगाई और पकड़ कर अम्मा के पास लेकर आ गए- देखौ भाभी यै पेड़े पर चढ़ी रहीँ अबै हाथ गोड़ टूटत तौ के जिम्मेवार होत, अम्मा मेरी दौड़ी चप्पल लेकर, मेरी माँ चप्पल से बहुत मारती थी गुस्सा आता था, लेकिन गॉंव पर खतरा नहीं था। ढेर सारे बचाने वाले थे मेरे पास तक पहुंच ही नहीं पातीं थी। खैर डाँट कर बिठा दिया गया निकलना मत घर से !
लेकिन कौन से बच्चे बैठे रह सकते हैं। हम पांचों में इशारा हुआ और सबका ध्यान हटते ही हम ग़ायब और इस बार मंजिल जहाँ जाने की सख़्त मनाही थी। हमारे घर के पीछे करीब दो ढाई किलोमीटर में फैला झाड़ झंखाड़ जंगल सा उसमें फ़लदार पेड़ भी थे जैसे, आम, जामुन, अमरुद इत्यादि और सबसे बड़ा तो एक बहुत पुराना बड़ा घना पीपल का पेड़। बाबा हमारे रोज़ रात में कहानी में पिपरा परभूतवा अउर चुड़ैलिया का जिक्र जरूर करते की हम न जाएं वहाँ लेकिन जहाँ मना हो वहाँ तो जरूर जाना होता था !
वाह जाकर मुझे याद है कि पूरे रास्ते में छुई मुई के पौधे बिछे होते थे। उन्हें हम लोग दोनों पैरों से रगड़ते हुए चलते थे और उनकी पत्तियां बंद होती जाती थीं, शिकाकाई के ख़ूब छोटे छोटे पेड़ होते जंगल जलेबी के पेड़ झरबेरियाँ ख़ूब लेकिन गर्मियों में तो इनका सीज़न निकल चूका होता। कहीं कहीं एकाध मिल जातीं, हम वहाँ लूका छुपी खेलते। अमियाँ वगैरह तोड़ते और एक चीज़ होती है मकोईचा पता नहीं कितने लोग जानते हैं, छोटा छोटा झाड़ सा होता है इसमें। हरे रंग के गोल-गोल, छोटे-छोटे फल निकलते हैं पक जाने पर या तो लाल होते हैं या बैंगनी वो हम ख़ूब सारे तोड़ कर लाते और एक चीज़ पता नहीं लोग किस नाम से जानत हैं हम लोग तो गुमची कहते थे।
आधी काली आधी लाल होती थी मोती की तरह गुच्छे में निकलती थी, फिर उसका छिलका रगड़ कर हम निकाल देते और उसका जाने क्या क्या बना के खेलते और ढेर सारी चिलबिल मेरे ख़्याल से सब जानते होंगे ये गर्मियों में ही होता है, रगड़ कर छिलका उतार चिरौंजी जैसा लगता है !
हमारा अभियान ख़तम करके मैं फ्रॉक़ में और भाई लोग अपनी पॉकेट में भर कर वापस आते तो खातिरदारी कैसी हो आप लोग समझ सकते हैं।
अभी तो मेरे बचपन के ख़ज़ाने में बहुत सी प्यारी प्यारी यादें हैं मेरे पिताजी तो सम्मिलित ही नहीं हैं उनके साथ की यादें सबसे सुन्दर हैं !