Savita Singh

Children Stories

4.8  

Savita Singh

Children Stories

कुछ यादें मेरे बचपन की

कुछ यादें मेरे बचपन की

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गुज़रा ज़माना बचपन का आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम,

हाये अकेले छोड़ के जाना, लौट के न आना बचपन का आया है मुझे फ़िर याद वो ज़ालिम भाग ३.....

चलते है बचपन के समंदर से कुछ मोतियाँ कुछ सीपियाँ यादों के रूप में निकाल कर लाते हैं !

आज की यादें मेरे प्यारे पिताजी के साथ गाँव के पल ~~~~

मझिलके भइया आय गै हैं ,डड़वां (वो जगह जहाँ बस से उत्तर कर आदमी लोग तो पैदल ही चले आते थे ज्यादा दूर भी नहीं था मुश्किल से डेढ़ फ़र्लांग ) पर पहुँची गै हैं, ये मेरे छोटे काका की आवाज़ थी घर में हलचल मच गई उनके साथ मेरे बड़े भैया बड़े चाचा के दोनों बेटे और मामा के दोनों बड़े बेटे ये सारी गैंग छुट्टियों में कुछ समय उत्पात मचाने जरूर इकट्ठी होती !

हम लोग भी बहुत खुश की अब तो दूर दूर जाने को मिलेगा ! एक दिन तो बात चीत आराम में निकल जाता, फ़िर हम लोग रात में पिताजी से चुपके से पूछते कि कल कहाँ लेकर चलेंगे पिताजी, मेरे पिता जी ऐसे इंसान थे की दूसरा वैसा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा, छल प्रपंच से दूर सीधे साधे नौकरी करना और अपने परिवार में ही एन्जॉय करना छोटा बड़ा जात पात और अंधभक्ति से एकदम दूर, वो बोलते जहाँ कहो तुम लोग कल मछली मारा जाय या शिकार पर चलें, मेरा रहता कि मछली मारने चलेंगे क्योंकि वो जगह बहुत अच्छी थी, अगर मेरी अम्मा के कानों में बात पहुँच जाती तो उसी समय से शुरू हो जाता की ले जाइये बनाइये इसको जंगली अब ये मछली मारेगी ? कहाँ मारती है चुपचाप किनारे तो बइठि रहत है पिताजी यही कहते !

सुबह होते ही तैयारी शुरू हो जाती जाल और कंटिया सब तैयारहो जाता ,फिर एक बार भाई लोग विरोघ करते पिताजी इसको कहाँ ले जायेंगे ? चलने दो तुम लोगों का क्या बिगाड़ रही है !

फिर चल पड़ते हम लोग पोखरहवा मंदिर (बड़ा सा तालाब था औउससे काफ़ी ऊंचाई पर सीढ़ियों के बाद शिव जी का मंदिर  था) इसीलिए उसको पोखराहवा मंदिर कहते थे और वहाँ के पुजारी को हम लोग पोखराहवा बाबा कहते थे ! बड़ा ही मनोरम दृश्य होता था वहाँ। एक तरफ मंदिर बीच में तालाब और दूसरी तरफ स्कूल था जो उस समय पाँचवी तक ही था। अब शायद दसवीं तक हो गया है !

वहाँ पहुँच कर सारे लोग तो जाल लेकर घुस जाते और हम छोटे लोग कंटिया लगा कर बैठते और राम कसम कभी जो एक मछली  फंसी हो ! अंदर तो डर के मारे मैं नहीं जाती क्योंकि बहुत सी मछलियां डंक मारने वाली होती थीं ! मतलब भर की मछली का शिकार हो जाता तो वापसी की तैयारी होती और गाँव वाले तब तक अपनी भैंसें तालाब में गर्मी में छोड़ने आ जाते और मेरा जो मुख्य उद्देश्य होता था वहाँ जाने का वो पूरा होने का समय आ जाता। मेरी बाँछें खिल जातीं, मैं पानी में उतरती तो नहीं थी लेकिन पानी में तैरती भैंसों पर बैठ कर तालाब का चक्कर लगाने में बहुत  मज़ा आता था ,मैं पिताजी से कहती और वो ग्वाले को बुला कर  मुझे घुमवा देते, हालांकि भाई लोग पीछे पड़े रहते पर पिताजी के सामने उनसे डरता कौन ?

इस तरह मछली अभियान से वापस आकर फिर खाना वाना बुआ की रामायण और सो जाने से दोपहर ख़तम होती और शाम फ़िर वही जुगनु और खेल कूद चाची या बाबा की लंबी लंबी कहानियों में गुज़र जाती ! 

इसमें मैं सिर्फ मोटी मोटी मुख्य बातों का ही जिक्र कर रही हूँ शेष अगले भाग में ......


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