*विस्ना* लघुकथा
*विस्ना* लघुकथा
पूरे पैंतीस साल बाद दीपा के बाप को अपने परिवार की याद भी आई.. ,और खर्चा भी भिजवाया तो 'मात्र चार हजार आठ सौ पैतीस रुपया.., क्या जरुरत थी ..इतने सालों बाद अपने जिन्दा रहने का सबूत देने की , हमने तो मरा ही मान कर मन को समझा लिया ..शान्ति काकी बड़बड़ाती जाती और साड़ी के पल्लू से अपने आंसू पोंछती जाती।
"मोहनवा क्या जरुरत थी तुझे अपने भगोड़े कका से मिलने की ...ये पैसे लेके आने की.."
अरे काकी खुशी मनाओ , काका जिन्दा हैं , मैं तो क्या पहचानता कका को, वो तो पिताजी ने पहचान लिया...ओंकारेश्वर ले गया था उन्हें दर्शन के लिये ..नर्मदा में स्नान करते हुये पिताजी ने एक साधू को देखा , और रट लगा दी ये "मेरा भाई विस्ना है,ये विस्ना ही है",
पहले तो साधू टाल मटोल करता रहा ,पिताजी ने साधू की एक ना सुनी, बोलते रहे "अभागे' पेट से थी तेरी घरवाली , बेटा हुआ था तेरा....तेरी बेटी दीपा सबसे पूछती रही सालों साल "बाबू कब आयेगें"? ..बीबी बच्चों सबका नाश किया तूने ...कायर कहीं का ..लगभग छ:घन्टे बाद काका ने मान लिया कि वो विस्ना है...और रोने लगे ..
फिर सब के बारे में पूछा ताछ करते रहे , मैंने पूछा "कका! घर से भागे क्यों? पर कोई उत्तर नही दिया।
"काकी सब लोग कहते हैं आप की गृहस्थी तो सुखी थी ...पर ऐसा क्या हुआ कि कका भाग खड़े हुये?
पैतीस साल पहले का राज शान्ति की आंखों में तैर आया, "जच्चगी का समय पास जान कर मदद के लिये आई छोटी बहिन की चीख से वो उस रात चौंक के जागी थी , बहन के कमरें में विस्ना को देख पगला ही गई थी, चप्पलों से मारा था उसने विस्ना को , कभी अपनी शकल न दिखाने ..इसी रात घर से निकल जाने को कहा था।
उस दिन किस शर्म से गड़ा था विस्ना ..सच में चला गया कभी पलट के न आने को.., राज दफ्न हो गया हमेशा के लिये तीन लोगों के मन में" अब आज क्या कहे वो।
"मुझे कुछ पता नही मोहनवा, अचानक क्यों चले गये तेरे कका , मैंने तो पैतीस सालों से गांव भर की चाकरी करते हुये, अपनी देहरी में इसी उम्मीद से दिन काट दिये कि किसी दिन तेरे कका लौटे तो घर का द्वार तो उन्हें खुला मिले"।