मैं हूं ना तेरी साथ
मैं हूं ना तेरी साथ


सरू को नहीं पता है, उसकी यातनाओं और तकलीफों के पीछे असल में कौन है ?
उसका 'अड़याठ' पति, जो अपनी मौज में रहता, नदी नालों जंगलों में घूमता है, जब घर भर के लोग उसे कोसते तो सर झुकायें बैठ चुपचाप सुनता और जमीन में लकीरें खींचता।
उसकी सास ! जो -"सरु चाय बना.. सरु गोठ जा, सानी पानी कर ..दूध दुह ले.. आज जंगल से घास के साथ कुछ लकड़ी भी बटोर लेना, और हां समय पर पहुंच जाना,आज सरली खाना नहीं बना पायेगी", उसका भाई आने वाला है आज।
उसकी देवरानी सरली और देवर ! "देवर जो पोस्टमैन है, वह और उसका पति भी उसी पर निर्भर है, इसलिये देवरानी टशन में रहती है,
उसकी मां ! "जिन्होंने अपने अकेलेपन और गरीबी के चलते आँख मूंद के शादी कर दी।"
"शायद ईश्वर ! जिसने उसका ऐसा भाग रचा।"
यही सोचती हुई वह घास लेने निकल पड़ी, उसने सोच लिया था कि रास्ते में " जो स्कूल पड़ता है वहां की बड़ी बहिनजी से ही पूछेगी कि "मेरी तकलीफों के पीछे कौन है।"
तभी स्कूल के गेट में ही बड़ी बहनजी रमा दी से मुलाकात हो गई, नजर मिलते ही हँसते हुये रमा दी बोली "अरे सरु फिर लग गई तू जंगल को।"
"क्या करूं दी.. मेरे परान को कहां आराम है,आपको तो पता ही ठहरा सब।"
हां, सब समझती हूं सरु...,'रमादी' उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुये बोली, "मैं आज से पन्द्रह साल पहले बिल्कुल तेरी जैसी जिन्दगी जी रही थी ..पति भी चल बसा था.. ,कुछ दिन रोती बिसूरती रही ,फिर एक दिन लगा कि मेरी ऐसी हालत के लिये कोई भी जिम्मेदार नहीं मेरे सिवा..बस वो एक पल था ,सारे बोझ भरे रिश्ते छोड़ आई, सोचा था आश्रम जा माई बन जाऊंगी, पर मोहिनी माईजी,और भद्रा माईजी ने ज्ञान की नई राह दे दी , अब तू भी हिम्मत कर... मैं तेरे साथ हूं।
सरू के हाथों की पकड़ मजबूत हो रही थी ..और आँखों में नया विश्वास झिलमिला रहा था।