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Aditya Agnihotri

Tragedy Action

4.6  

Aditya Agnihotri

Tragedy Action

नंदू

नंदू

16 mins
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जी, मैं गुजरात वाडनगर का रहने वाला हूँ। ज़ात का बनिया हूँ। पिछले बरस हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ था तब मैं नया नया था बिलकुल बे-कार। माफ़ कीजिएगा मैंने दंगा शब्द का इस्तेमाल किया, कत्लेआम कहना चाहिए था। सिर्फ़ दंगा कह कर इसके पीछे जिनकी कड़ी मेहनत थी उनके काम को मैंने ओछा कर दिया। 

जी हाँ तो मैं बिल्कुल बे-कार था तब मैं नाली की गैस पे डंका चढ़ा कर, फ़िर उसमें गांजे के पत्ते मिला कर “ओरगेनिक टी” बेचने लगा। लोगों को लत लग गई, अपना कारोबार चल पड़ा। जब विकास होने लगा और इधर के आदमी उधर और उधर के इधर, तो जनसँख्या बढ़ लगी। लोग करोड़ों की तादाद में मेरी “ओरगेनिक टी” पीने लगे तब मैं बोर हो गया सो सोचा, अब कोई और कारोबार करें।

कुछ भी करने से पहले मैं लोगों से हमेशा पूछा करता था कि “भाई, आपको कोई तकलीफ़ तो नहीं “। भले लोग कभी न नहीं करते थे बल्कि मुस्कुरा के कहते थे “नहीं, नहीं आप कैसी बात कर रहे हैं।”

इस तरह सारे रास्ते लोगों को तकलीफ़ देते देते मैं राजधानी पहुंच गया।

मैं तो चला ही इस नियत से था कि कोई मोटा कारोबार करूंगा। चुनांचे पहुंचते ही मैंने हालात को अच्छी तरह जांचा और अलॉट मेन्टों का सिलसिला शुरू कर दिया। सिक्का पालिश मुझे आता ही था। चिकनी चुपड़ी बातें कीं। एक दो आदमियों के साथ याराना गांठा और एक छोटा सा मकान अलॉट करा लिया। इस से अपने धंधे का थोडा विकास हुआ तो मैं अलग-अलग शहरों में फिर मकान और दुकानें अलॉट कराने का धंधा करने लगा।

काम कोई भी हो इंसान को मेहनत करना पड़ती है। इसलिए कोई माई का लाल अब ये नहीं बोल सकता कि मैं मेहनती नहीं हूँ। १८-१8 घंटे जाग के मैं अलोटमेंट करता है। खाली टाइम में लूडो खेलता हूँ।

मुझे अलॉटमिनटों के सिलसिले में काफ़ी भाग दोड़ करना पड़ती है। किसी के मस्का लगाया। किसी की मुट्ठी गर्म की, किसी को खाने की दावत, किसी को नाच रंग की, ग़र्ज़-ये-कि बेशुमार बखेड़े थे। दिन भर ख़ाक छानता, बड़ी बड़ी कोठियों के फेरे करता और शहर का चप्पा चप्पा देख कर अच्छा सा मकान तलाश करता जिस के अलॉट कराने से ज़्यादा मुनाफ़ा हो।

इंसान की मेहनत कभी ख़ाली नहीं जाती। मुझे अपने अपने आप से मुहब्बत होने लगी थी इसलिए मैंने मुहब्बत वाले रंग का नोट छपवाया। पांच बरस के अंदर मैंने इतना मुहब्बत वाला रुपया पैदा कर दिया कि साला रूपये का साला भाव ही गिर गया। अब भगवान् का दिया सब कुछ था। रहने को बेहतरीन कोठी। अपने बैंक में बे-अंदाज़ा माल पानी, फिर मैंने बैंक ही ख़रीद लिया।

गलत किया क्या ? किया भी तो कोई वादा नहीं।

जी हाँ, तो भगवान् का दिया सब कुछ था। रहने को बेहतरीन कोठी, नौकर चाकर, पांच-छे साल तक मैंने अपना कोई ड्रेस रिपीट ही नहीं किया, रोज़ नया कच्छा पहनता था। ये सब कुछ था। लेकिन मेरे दिल का चैन जाने कहाँ उड़ गया। यूँ तो ओरगेनिक टी का धंधा करते हुए भी दिल पर कभी-कभी बोझ महसूस होता था। लेकिन अब तो जैसे दिल रहा ही नहीं था। या फिर यूँ कहिए कि बोझ इतना आन पड़ा कि दिल उस के नीचे दब गया। पर ये बोझ किस बात का था ?

आदमी ज़हीन हूँ, दिमाग़ में कोई सवाल पैदा हो जाये तो मैं उस का जवाब ढूंड ही निकालता हूँ। ठंडे दिल से (हालाँकि दिल का कुछ पता ही नहीं था) मैंने ग़ौर करना शुरू किया कि इस गड़बड़ घोटाले की वजह क्या है ?

औरत ? हो सकती है। मेरी अब अपनी तो कोई थी नहीं। जो थी वह अपने गुजरात ही में छोड़ के आ गया था। लेकिन दूसरों की औरतें मौजूद थीं। अब अपना अपना टेस्ट है। सच्च पूछिए तो औरत जवान होनी चाहिए और ये ज़रूरी नहीं कि पढ़ी लिखी हो, डांस करना जानती हो। अपुन को तो सारी जवान औरतें चलती हैं। वैसे जवानी, शारीरिक नहीं एक मानसिक अवस्था है, लेकिन मुझे पर्सनली शारीरिक वाली ज़्यादा पसंद आती हैं।

अब औरत का तो सवाल ही उठ गया और दौलत का पैदा ही नहीं हो सकता। इसलिए कि बंदा ज़्यादा लालची नहीं बल्कि फ़कीर हूँ, जो भी थोडा बहुत है उसी मैं खुश हूँ और यही सन्देश भी देता हूँ कि आपके पास जितना कुछ है उसमें ही संतुष्ट रहिये। लेकिन ये साली फिर दिल वाली बात क्योँ पैदा हो गई थी।

आदमी ज़हीन हूँ। कोई मसला सामने आ जाए तो उसकी तह तक पहुंचने की कोशिश करता हूँ। कारख़ाने चल रहे थे। दुकानें भी चल रही थीं। रुपया अब अपने बाप का नहीं, अपना था। मैंने अलग थलग हो कर सोचना शुरू किया और बहुत देर के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि दिल की गड़बड़ सिर्फ़ इसलिए है कि मैंने कोई नेक काम नहीं किया।

अपने गुजरात में तो मैंने बीसियों नेक काम किए थे। मिसाल के तौर पर जब मेरा दोस्त बजरंगी कत्लेआम के जुर्म में जेल गया तो मैंने उसकी एडी चोटी का जोर लगा डाला , मेरी मेहनत देख के कारागार वाले पिघल गये और अपने यार को छोड़ दिया। याराना याराना होता है। फिर मेरे जितने भी मित्र जिन्होंने ग़लती से गलत काम कर दिए थे। पश्चाताप के लिए यहाँ वहां फिर रहे थे, मैंने उन्हें मंत्रालय में लगवा दिया। मेरा मानना है कि भले काम करने के लिए कोई जघन्य पाप करने होते हैं तब जा के अच्छाई सर चढ़ कर बोलती है। अब बताओ इस सब में कितना रुपया ख़र्च हो गया होइगा। उस हरामी इशरत बाई को ज़्यादा गर्मी हो गई थी। मैंने उसे राजधानी से डाक्टर बुला कर उसका इलाज करा दिया। लेकिन मैंने खुद राजधानी आ कर कोई नेक काम नहीं किया था और दिल की गड़बड़ की यही वजह थी। वरना और सब ठीक था।

मैंने सोचा। क्या करूं ? ख़ैरात देने का ख़याल आया। लेकिन एक रोज़ शहर में घूमा तो देखा कि क़रीब क़रीब हर शख़्स भिखारी है। कोई भूखा है। कोई नंगा। किस किस का पेट भरूँ, किस किस का अंग ढांकूँ ?।।। सोचा एक लंगर ख़ाना खोल दूं लेकिन एक लंगर ख़ाने से क्या होता और फिर इतना अनाज कहाँ से लाता ? ब्लैक मार्केट से ख़रीदने का ख़याल पैदा हुआ तो ये सवाल भी साथ ही पैदा हो गया कि एक तरफ़ पाप करके दूसरी तरफ़ पुण्य कमाने का मतलब ही क्या है ? घंटों बैठ बैठ कर मैंने लोगों के दुख दर्द सुने। सच पूछिए तो हर शख़्स दुखी था। वो भी जो दुकानों के थड़ों पर सोते हैं और वो भी जो ऊंची ऊंची हवेलियों में रहते हैं। पैदल चलने वाले को ये दुख था कि उस के पास काम का कोई जूता नहीं। मोटर में बैठने वाले को ये दुख था कि उस के पास कार का नया मॉडल नहीं। हर एक ज़िन्दा शख़्स की शिकायत अपनी अपनी जगह दरुस्त थी।

मैंने ग़ालिब की एक ग़ज़ल सुनी थी।

न कहो गर बुरा करे कोई - बख़्श दो गर ख़ता करे कोई, कौन है जो नहीं है हाजतमन्द, किस की हाजत रवा करे कोई अब हाजत रवा करने का मतलब होता है कि लोगों की ज़रूरतें पूरी करते फिरना। जी हाँ, अब मैं किस किस की ज़रूरतें पूरी करता, जब सौ में से सौ ही ज़रूरतमंद थे। मैंने फिर ये भी सोचा कि इस तरह फ़ोकट की सुविधा देना कोई अच्छा काम नहीं। संभवतः आप मुझ से सहमत न हो। वैसी आपकी सहमती मांग भी कौन रहा है ?

मैंने वो सब्सिडी वाले लोगों के झुण्ड में जा कर हालात का अच्छी तरह जायज़ा लिया। मुझे मालूम हुआ कि सब्सिडी ने इस भीड़ को बिल्कुल ही निकम्मा बना दिया है दिन भर हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, कुछ विचारक बन रहे हैं कलाकार बन रहे हैं कुछ काम नहीं तो विरोध कर रहे हैं बाक़ी पबजी खेल रहे हैं, टिकटोक चला रहे हैं, बाकी नागिन तो है ही। कुल मिला कर फ़ोकट मुफ़्त की रोटियां तोड़ रहे हैं।।।ऐसे लोग भला राष्ट्र को मज़बूत बनाने में क्या मदद दे सकते हैं। चुनांचे मैं इसी नतीजा पर पहुंचा कि कोई भी सुविधा देना हरगिज़ नेकी का काम नहीं। लेकिन फिर नेकी के काम के लिए और कौन सा रस्ता है ?

आलस और भुखमरी से धड़ा धड़ लोग मर रहे थे। कभी डेंगू से मरते थे कभी जल-वायु प्रदुषण। डॉक्टर पिट रहे थे, अस्पतालों में तिल धरने को जगह नहीं थी। मुझे बहुत तरस आया। सोचा कि एक हस्पताल बनवा दूं मगर सोचने पर इरादा तर्क कर दिया। पूरी स्कीम तैय्यार कर चुका था। डोकटरों की टाइम पे भर्ती कर देता, नयी मेडिकल कोलेज की इमारत के लिए टेंडर निकलवाता, दाख़िले की फीसों का रुपया जमा हो जाता तो तीन बार परीक्षा केंसिल भी करता, ३-४ साल के कोर्स को थोरोली स्टडी कर के छात्र ६-७ साल में निकलते, कहाँ कितना रुपया खर्च करना है सब तय कर दिया था। ज़ाहिर है कि सत्तर प्रतिशत उसमे प्रमोशन पर खर्च करता बाकी बचा लेता मगर ये सारी स्कीम धरी की धरी रह गई। जब मैंने सोचा कि अगर मरने वालों को बचा लिया गया तो ये जो ज़ाएद आबादी है वो कैसे कम होगी। ग़ौर किया जाये तो ये सारा लफ़ड़ा ही फ़ालतू आबादी का है। वैसे लफड़े का मतलब है झगड़ा, वो झगड़ा जिस में फ़ज़ीहत भी हो। लेकिन इस से भी लफड़ा शब्द के महत्त्व समझा नहीं जा सकता।

जी हाँ ग़ौर किया जाये तो ये सारा लफ़ड़ा ही उस फ़ालतू आबादी का बाइस है। अब लोग बढ़ते जाएँगे तो इसका ये मतलब नहीं कि ज़मीनें भी साथ साथ बढ़ती जाएँगी। आसमान भी साथ साथ फैलता जाएगा। बारिशें ज़्यादा होंगी। अनाज ज़्यादा उगेगा। इसलिए मैं इस नतीजे पर पहुंचा।।। कि हस्पताल बनाना हरगिज़ हरगिज़ नेक काम नहीं।

फिर सोचा पुल-वुल बनवा दूं। लेकिन मैंने देखा लोग तो नाम उछालने के लिए पुल बनवाते हैं। ये कोई नेकी का काम हुआ ? ख़ाक! मैंने कहा नहीं ये ख़्याल बिलकुल ग़लत है। पुल होंगे तो ग़रीब-गुरबा पहले धुप से बचने के लिए अपना पिछवाडा टिकाएंगे फिर वहां झोपड़ा बसा लेंगे फिर साले वहीँ आबादी बदयेंगे। इसलिए ज़्यादा पुल बनना इंसानी क़ौम के हक़ में हरगिज़ नहीं हो।

थक हार कर मैने धर्म के रास्ते पर चलने का इरादा पक्का किया। अरे भाई, भगवान् ने मुझे ख़ुद ही ये रास्ता दिखाया था। शहर में एक जलसा हुआ। जब ख़त्म हुआ तभी लोगों के बीच कोई अफ़वाह फैल गई। इतनी भगदड़ मची कि साठ-सत्तर आदमी निपट गए। इस हादिसे की ख़बर दूसरे रोज़ अख़बारों में छपी थी कि “वह मरे नहीं बल्कि शांत हुए थे”

मैंने गहन-चिंतन शुरू किया। सोचने के अलावा मैं कई तजुर्बेकार लोगों से मिला। मालूम हुआ कि वे लोग जो अचानक हादसों का शिकार होते हैं, उनकी मौत सबसे बेहतर होती है,अचानक कुछ हुआ और पट्ट बोल गये। शान्ति की इक्छा रखने वाले तुरंत मस्त शांत हो गये।

मैंने सोचा कि अगर लोग मरने की बजाय शहीद हुआ करें तो कितना अच्छा है। वह जो आम मौत मरते हैं। ज़ाहिर है कि उन की मौत बिलकुल वेस्ट हो जाती है। अगर वो शहीद हो जाते तो कोई बात बनती। शहीद होने से मिलता है वो रुत्बा जिस से बड़ा कोई और रुत्बा ही नहीं।

मैंने इस बारीक बात पर और ग़ौर करना शुरू किया।

चारों तरफ़ जिधर देखो ख़स्ता-हाल इंसान थे। चिन्तक, विचारक बन बैठे गुमसुम नकारात्मक चेहरे, बेरोज़गारी के बोझ तले पिसे हुई , धंसी हुई आँखें, बे-जान चाल, कपड़े तार-तार, रेलगाड़ी के कंडम माल की तरह। या तो वे किसी टूटे फूटे झोंपड़े में पड़े हैं या बाज़ारों में बेमालिक मवेशीयों की तरह मुँह उठाए बेमतलब घूम रहे हैं।

क्यूँ जी रहे हैं ?

किस के लिए जी रहे हैं ?

और कैसे जी रहे हैं। इस का कुछ पता नहीं।

चमकी बुखार, चिकिन गुनिया आया तो कभी बर्ड फ्लू, हज़ारों लोग मर गए। कुछ सर्दियों में अकड़ गए। कुछ गर्मियों में सूख गए। किसी की मौत पर किसी ने दो आँसू बहा दिए लेकिन मेजोरिटी फिर भी चुपचाप मस्त रही।

ज़िंदगी समझ में न आई, ठीक है। इसका मज़ा न उठाया, ये भी ठीक है, लेकिन मरें, वो भी बेकार, ये ठीक नहीं। जीवन उद्देश्यहीन हो ये चलेगा लेकिन मरण उद्देश्यहीन हो ये बिलकुल सही नहीं।

वह किस का शेर है। मरके भी चैन ना पाया तो किधर जाएं गे। मेरा मतलब है अगर मरने के बाद भी ज़िंदगी ना सुधरी तो लानत है ससुरी पर।

मैंने सोचा क्यों न बेचारे, ये क़िस्मत के मारे, दर्द के ठुकराए हुए इंसान जो इस दुनिया में हर अच्छी चीज़ के लिए तरसते हैं। इस दुनिया में ऐसा रुत्बा हासिल करें कि जो उनकी तरफ़ निगाह उठाना पसंद नहीं करते, वे भी उनको देख जलें। ऐसा तभी संभव था जब वे आम मौत न मरें बल्कि शहीद हों।

अब सवाल ये था कि ये लोग शहीद होने के लिए राज़ी होंगे ? मैंने सोचा, क्यों नहीं। ऐसा कौन सा इन्सान होगा जिसके ज़हन में कम से कम एक बार खुदखुशी का ख़याल न आया हो और जब से ये राज-रजवाड़े देश-प्रदेश बने हैं, ज़मीन पे लकीरें खिचीं हैं, तब से ये शौक़-ए-शहादत का मज़ा ही अलग रहा है, पहले ये बात कहाँ थी। पुराने क्रांतिकारियों की देखा देखी तो अब हर तबके में ये रुत्बा पैदा कर दिया गया है। लेकिन मुझे बहुत निराशा हुई जब मैंने एक मरियल से आदमी से डायरेक्ट पूछ लिया-

क्या तुम शहीद होना चाहते हो ?

उस ने जवाब दिया- “नहीं”

अब मेरी समझ में नहीं आया कि वो इनसान आख़िर जी कर क्या करेगा। मैंने उसे बहुत समझाया कि देखो मित्र, ज़्यादा से ज़्यादा, ज़्यादा से ज़्यादा तुम डेढ़ महीना और जियोगे, चलने की तुम में ताकत नहीं। खांसते खांसते बेफ़िजूल में लोगों को डराते रहते हो अभी दम निकला, तभी दम निकला । फूटी कौड़ी तक तुम्हारे पास नहीं। ज़िंदगी भर तुमने सुख देखा नहीं। उज्ज्वल भविष्य का तो सवाल ही नहीं फिर और जी कर करोगे क्या ? फ़ौज में तो तुम भर्ती हो नहीं सकते। इसलिए वतन की ख़ातिर लड़ते-लड़ते जान देने का ख़याल तो बेवकूफ़ी है। अतः क्या ये बेहतर नहीं कि तुम कोशिश करके यहीं बाज़ार में या डेरे में जहां तुम रात को सोते हो, अपनी शहादत का बंद-ओ-बस्त कर लो। उसने पूछा। ये कैसे हो सकता है ?

मैंने जवाब दिया-

“ये सामने केले का छिलका पड़ा है। फ़र्ज़ करो कि ये एक विदेशी षडयंत्र है जिससे तुम्हारे देश को गुलाम बनाया जा रहा है, अब तुम्हे देश को बचाना है तो इस केले के छिलके पर दोड़ते हुए पैर रखना होगा। तुम्हारी तेज़ दोड़ के कारण कायनेटिक ऊर्जा उत्पन्न होगी और ये ऊर्जा तुम्हारे मानसिक बल से दुसरे देश में संचारित हो जाएगी। तुम यहाँ केले के छिलके पे कदम रखोगे वहां दुसरे देश में माइन फट जाएगी। इस तरह तुम अपने देश को विदेशी षडयंत्र से बचा पाओगे और शहीद भी हो जाओगे । अपने लिए तुमने बहुत जी लिया अब देश के लिए मरो और इस छिलके पर स्वयं फिसल जाओ।।।।।। ज़ाहिर है तुम्हारी शहादत के जश्न का इंतजाम मैं कर दूंगा। “

लेकिन उस बेवक़ूफ़ आदमी को मेरी ये बात समझ में न आई। कहने लगा-

“मैं क्यूँ आँखों देखे, केले के छिलके पर पांव धरने लगा, क्या मुझे अपनी जान अज़ीज़ नहीं।।।”।

वैसे क्या जान थी, आहा। हड्डियों का ढांचा, झुर्रियों की गठड़ी!! मुझे उसकी ऐसी सोच पर बहुत अफ़्सोस हुआ और उस वक़्त और भी ज़्यादा हुआ। जब मैंने सुना कि वो जान ख़ैराती हस्पताल में लोहे की चारपाई पर खांसता खंकारते निकली । अच्छा खासा मैं उसे शहीद करवा देता लेकिन अब क्या करें। मन तो किया कि वक़्त की घड़ी को थोडा पीछे घुमाता और ऐसी बेशकीमती देशद्रोही जान को वहीँ गोडसे स्टाइल में गोली मार कर ही वापिस आता।

फिर एक बुढ़िया मिली, मुँह में दाँत न पेट में आंत। आख़िरी सांस ले रही थी, मुझे बहुत तरस आया। उसकी सारी उम्र लाचारी ग़रीबी में अमीरों को हाय देते गुज़री। लेकिन उन साले अमीरों को एक हाय न लगी, लेकिन मैंने उसे हाय बोला और उठा कर रेल के पटरी पर ले गया। लेकिन जनाब ज्यों ही उसने ट्रेन की आवाज़ सुनी। होश में आ गई नाटकबाज़ औरत और चाबी वाले खिलौने की तरह सरपट भाग गई। त्रियाचरित्र दिखा दिया कुतिया ने।

मेरा दिल टूट गया। लेकिन फिर भी मैंने हिम्मत न हारी। बनिया का बेटा अपनी धुन का पक्का होता है। नेकी का जो साफ़ और सीधा रास्ता मुझे नज़र आया था। मैंने उसे अपनी आँख से ओझल न होने दिया।

मुग़्लों के वक़्त की एक बहुत बड़ी मस्जिद बेरूनी सी पड़ी थी। उस में एक सौ इक्कावन छोटे छोटे कमरे थे। बहुत ही ख़स्ता हालत में। मेरी तजरबा-कार आँखों ने अंदाज़ा लगा लिया कि ये एकदम सही जगह है शहादत के लिए। चुनांचे मैंने बगल वाला अहाता ख़रीद लिया और उसमें चार भिखारी पंडे बिठा दिए। दो महीने उनसे किराया वसूल किया। तीसरे महीने जैसा कि मेरा अंदाज़ा था, एक दिन घोर अँधेरी रात में, मौका देख के पंडे अन्दर गये और वहां भगवन की मूर्ति रख आये। बारिश ख़त्म होते होते वहां बहस छिड़ गई कि भगवन वहां प्रकट हुए हैं ? जैसा मेरा अंदाज़ा था कि किसी का दिमाग नहीं चला कि भगवन अब नयी दुनिया बनाने में मस्त होंगे, उनको प्रकट होने की फुर्सत कहाँ। वो खुद अपने फेल्ड मोडल को देख कर कबके यहाँ से पलायन कर शनि गृह पर नयी प्रजाति के अविष्कार में लगे हैं जिसे हम मुहब्बत में एलियन कहा करते हैं।

बस लेकिन लोगों का क्या था, कुरबानी वाली ऊर्जा का संचार हो गया। सब एकदम तैयार थे मर मिटने के लिए, ज़ोरदार दंगा हुआ। इतनी ज़ोर का कि आज तक उसकी चींखें-चीत्कारें राजधानी को हिला देती हैं। बच्चे बूढ़े और ना जाने कितने अपने २५-३० साल के जोशीले नौजवान हजारों साल पुराने धर्म के नाम पे शहीद हो गए। बल्कि आज तक वही मस्जिद हर साल ७-8 को ऐसे ही शहीद करा ही देती है। देखिये न मेरे गुस्ताख मुंह से फिर दंगा निकल गया, वो तो कत्लेआम था भई।

इस भारी-भरकम कदम से मेरे दिल पर जो बोझ सा था, किस क़दर हल्का हो गया, बयां नहीं कर सकता। कितनी सारी आबादी की बैचेनी दूर हुई, अशांत लोग एकदम शांत हो गये और उन्हें शहादत का रुत्बा भी मिल गया। तब से मैं यही काम कर रहा हूँ। आये दिन जैसे ही मौका हाथ लगता है, दो तीन आदमीयों को शहादत का जाम पिला देता हूँ। जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ। काम कोई भी हो इंसान को मेहनत करना ही पड़ती है।

लेकिन वो कुमार सानु।।। वो क्या तो गाता था, उसकी आवाज़ में उससे कहीं ज़्यादा वज़न था। ग़लती से सही सुर लग जाए तो माफ़ कीजियेगा।

“मुझे टुकड़ों में नहीं जीना है, कतरा-कतरा तो नहीं पीना है, सारे पैमाने हटा दो यारों”

तो यारों, कहना ये है कि मुझे काफ़ी मेहनत करना पड़ती है। और मैंने वो पुराणी नैतिक शिक्षा के सारे पैमाने हटा दिए हैं। मिसाल के तौर पर एक आदमी को जिसका वजूद एकदम आम जनजातीय मगर पढ़े-लिखे बेरोजगार की तरह बे-मानी और बे-कार था। जाम-ए-शहादत पिलाने के लिए उसे मुझे पूरे दस दिन जगह जगह वही विदेशी षड्यंत्र वाले केले के छिलके गिराने पड़े लेकिन जहां तक मैं समझता हूँ मौत की तरह शहादत का भी एक दिन मुक़र्रर है। दसवीं रोज़ जा कर वो अपने रोज़मर्रा के काम, गटर की सफ़ाई में, हम सबकी गंदगी साफ़ करते हुए शहीद हुआ। वो आज तक का सबसे स्वच्छ शहीद कहलाया। मैंने मंत्रालय में उसके नाम पर जश्न-ऐ-शहादत का भव्य आयोजन भी करवाया।

मेरा मानना है कि ताज़ा ताज़ा शहीद का गुणगान बस १३ दिन तक चलता है लेकिन शहादत पुरानी शराब की तरह होती है, समय के साथ वो और ज़्यादा सनसनीखेज़ और बिकाऊ हो जाती है इसलिए आज कल मैं पुराने शहीदों की बड़ी बड़ी मूर्तियाँ बनवा रहा हूँ। ठेका मेरी ही कंपनी के पास है, पौने पांच हज़ार करोड़ का है। इस में से दो हज़ार तो मैं साफ़ अपनी जेब में डाल लूंगा। बीमा भी करा लिया है। इसे मैंने टूरिस्ट प्लेस बनवा दूंगा। मैंने गौर किया है शहीदों की मूर्तियों के नीचे खड़े हो कर हर एक इन्सान एकदम राष्ट्रीय-राष्ट्रीय टाइप फील करता है। राष्ट्रीय गीत गाता हैं, सेल्फी खिचाता हैं। अब उनको क्या पता, वही सेल्फी उनकी आखिरी तस्वीर बन जाएगी और उसी दीवार पर शुशोभित होगी जिसे उन्होंने पिछली दिवाली पर बेहद करीने से दिहाड़ी वाले मजदूर से सस्ते में पुतवाया था।

तो जैसे कि मेरा अंदाज़ा है, तीसरे साल तक अच्छी भीड़ जुट जाएगी तब मैं अपना सफ़ाई अभियान शुरू कर दूंगा। तब तक ऐसी और बहुत सी मूर्तियाँ भी तैयार हो जाएँगी।

देखना, मूर्ति ख़ुद ही धड़ाम से गिर पड़ेगी। क्योंकि सडकों वाला धंधा सोच-समझ के ही मैंने मसाला लगवाया है। बाक़ी अपनी प्रकृति की ऐसी, ऐसी-तेसी की है, कि थोड़े-मोड़े झटके और बाढ़ तो अब लगातार आते ही रहते हैं, एक ज़ोरदार भूकम्प का बस इंतजार है। ईश्वर से मेरी ऐसी कामना है कि ये तब सारे राष्ट्रभक्त राष्ट्र के नाम एक साथ शहीद हो जाऐंगे और अपने-अपने मन की अशांति से निजात पाएंगे। लेकिन अगर कोई बाई चांस बच गया तो इसका ये पुख्ता सबूत होगा कि वो पहले दर्जे का गुनाहगार है जिसकी शहादत भगवन को राज़ी नहीं है।

तो बस अब अगर आपका मन सच्चा है तो शहीद होने, और देश पर मर मिटने के लिए तैयार हो जाओ। 


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