मैं और शिशु मंदिर

मैं और शिशु मंदिर

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मैंने १२ साल शिशु मंदिर में पढ़ाई की है। बचपन में शाखाओं में भी भाग लिया है और घोष में आनक भी बजाया है। कुष्ठ रोग के टिकेट भी बांटे हैं और प्राक्रतिक आपदा आने पर सड़कों पर चंदा मांगने भी गया हूँ। और लेखक होने के नाते शिशु मंदिर को काफ़ी करीब से महसूस कर सकता हूँ।

मैं जिस शिशु मंदिर में पढता था उससे बेहद करीब एक मस्जिद भी थी। मस्जिद और स्कूल के बीच का जो रास्ता था वो स्कूल से भागने का शोर्ट-कट हुआ करता था। स्कूल से वैसे तो हम लोग भागते नहीं थे लेकिन पास की स्टेशनरी से कई बार कुछ ज़रूरी अस्त्र लाने पड़ते थे हर सब्जेक्ट के लिए अलग कोपी, किताब, पेन्सिल, रबर, कटर इत्यादि। अगर हम ये भूल जाते थे, तो करारी मार पड़ सकती थी।

शिशु के सभी शिक्षक बड़े मेहनती थे। उनमें से कुछ को शायद आज भी लगता होगा कि उन्होंने अपना जीवन देश सेवा, राष्ट्रनिर्माण में अर्पित कर दिया है लेकिन सच ये भी है कि उनकी तनख्वाह बहुत ही कम थी। उन में से कई साइड इनकम के लिए बीड़ी बनाया करते[बीडी और देशी शराब उद्योग हमारे छोटे से शहर के सबसे बड़े उद्योग हैं]और अतिरिक्त कमाई के लिए ट्यूशन भी किया करते थे। इसे मैं सबसे अच्छे प्रकार की ऊपरी कमाई कहूँगा। लेकिन फ़िर पता नहीं कब ये एक पेटर्न बन गया। इंजीनियरिंग का बूम आ गया और स्कूलों में भी अब टीचर्स जानबूझकर नहीं पढ़ाते थे और फिर प्रेक्टिकल में जिसको ज़्यादा नंबर चाहिए हैं उसे इनडायरेक्टली ट्यूशन आने के लिए मजबूर किया जाने लगा।

लेकिन उन शिक्षकों से कोई शिकायत नहीं है। वे भी उसी शिक्षा पद्धति के मारे थे जिसके हम सब हैं। संविदा शिक्षक की भर्तियाँ आने लगी थीं और जो उसका एग्जाम निकाल लेते थे, वे उस राह चले जाया करते थे। वहां सरकारी नौकरी थी, सुरक्षा ज़्यादा, काम कम होता था। घर वाले कितने खुश होते हैं न जब नौकरी में काम कम हो, पैसा ज़्यादा मिले? और नौकरी से न निकाले जाने का डर भी न हो।।। शायद सारी मध्यप्रदेश बोर्ड की शिक्षा पद्धति इसी आधार पर तैयार की गई है। मध्यप्रदेश बोर्ड की हालत ख़राब है। व्यापम घोटाले की तो अब बात तक नहीं होती। सिलेबस को जान-बूझ कर आसान बनाया जाता है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को पास दिखाया जा सके। युगबोध और शिवलाल की गाइडों से हमें पढ़ाया गया था। नोट्स बना के दे दिए जाते थे कि जो प्रश्न परीक्षा में आने वाले हैं बस वही पढना, ग़लती से भी ज़्यादा मत पढ़ लेना। एक दो बार हमें डांट भी पड़ी है कि जो चीज़ एग्जाम में नहीं आने वाली है उसे पढने या उसके बारे में सवाल पूंछने की तुम्हारी हिमाकत कैसे हुई।

वैसे परीक्षा का समय आने पर हमारे शिक्षक सुबह ४ बजे घर पधार जाते थे और जांचते थे हम वाकई जागे हुए हैं कि नहीं। हममें से ज़्यादातर उनके आने के वक़्त जाग जाया करते थे और उनके जाने के बाद खुर्राटे मारा करते थे। वैसे मुझे लगता नहीं है कि उन मेहनती शिक्षकों को ये अतिरिक्त काम करने के लिए ओवर-टायम मिला करता होगा। 

ज़्यादातर शिक्षकों को या तो पान खाने की आदत थी नहीं या फिर जर्दा तम्बाकू। स्टीव वा की च्युइंग गम की तरह हमेशा उनका मुंह हमेशा इन दो चीज़ों से शुशोभित होता था। इसी तरह एक तम्बाकू रगड़ने वाले शिक्षक, जो हमें भूगोल पढाया करते थे, हमें बहुत बाद में पता चला कि वे स्कूल के रसोईया भी थे। स्कूल के एक फंक्शन में उनकी इस पाक कला का हमें अंदाज़ा हुआ वर्ना हम तो उनके भूगोल से बचते ही रहते थे। भूगोल उस दिन पहली बार स्वादिष्ट लगा था।

हमारे टीचर्स को जगमगाता हुआ सफ़ेद धोती कुरता पहन कर रोज़ स्कूल आना पड़ता था ताकि वे बच्चों को साफ़ स्वच्छ कपड़े न पहनने पर उन्हें डांट सकें, मार सकें। नाखून कटें हों, सभी बच्चे टिफ़िन लायें हैं या नहीं, इस पर भी ख़ास ध्यान दिया जाता था। सब एक कतार में बैठ के पहले भोजन मन्त्र पढ़ते थे, फिर मिल बाँट के खाते थे। हमारे कई सारे शिक्षक अधिक समय न मिल पाने के कारण टिफ़िन नहीं ला पाते थे, इस लिए कई बार वे बच्चों का टिफ़िन चेक करने के बहाने उसमे से एक-दो पुड़ी ले जाया करते थे।

मुझे टिफ़िन के साथ जुडी एक ख़ास घटना याद है। मैं एक बड़े संयुक्त परिवार में रहता था। पिताजी को अकेले पूरा घर चलाना पड़ता था। उन्हें हमारी बढती उम्र में परिवार के लिए ज़्यादा समय नहीं मिल पाया इसलिए हम सबने कभी मिल-बाँट के खाना सीखा नहीं था। स्कूल में जब सब मिल-बाँट के खाते थे तो मुझे बड़ा संकोच लगता था। बल्कि आज भी मैं इस मामले में उतना कंफर्टेबल नहीं हुआ जितना होना चाहिए। एक बार में खुद अपने लिए ब्रेड सेंक कर ले गया था। वो पहली बार मैंने अपने हाथ से कुछ बनाया था। पीछे से मेरा दोस्त आया और उसने मेरे टिफ़िन से ब्रेड उठा के खा ली। मैंने अचानक उसके गाल पर तमाचा रसीद कर दिया। उस बात का मुझे आज भी अफ़सोस है। मेरे जैसे अहिंसावादी इन्सान से इतनी सी बात पर अपने दोस्त पर हाथ कैसे उठ गया, मुझे आज भी समझ नहीं आता। बड़े अपराध भी लोगों से कुछ ऐसे ही अचानक हो जाते होंगे।

इसी प्रकार एक बार पांचवी कक्षा में मेरा इकलौता मुस्लिम क्लासमेट जो बिलकुल मेरे पीछे बेठा करता था। वो वहां के पार्षद का बेटा था। मैंने उसे नक़ल नहीं कराई थी इसलिए मुझे मेरे टीचर ने डांट लगाई कि ज़रा उसके बारे में भी मुझे सोचना चाहिए था। वो फ़ैल हो गया तो उसके दिमाग पर कितना बुरा असर पड़ेगा। वैसे पार्षद का बेटा न हो तो हमें इस तरह से नक़ल करने-कराने की आज़ादी नहीं थी।

शिशु मंदिर में जयंतियां बड़े धूम-धाम से मनाई जाती थी। हमें उस दिन ज़्यादा मज़ा आता था क्योकि उस दिन पढाई नहीं होती थी। एक बार मैंने शिवाजी जयंती पर मराठी में भाषण दिया था जबकि मुझे मराठी का ‘म’ भी नहीं आता था। क्या अर्थ का अनर्थ हुआ होगा आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। मैंने शिवाजी के गोरिल्ला युद्धों के बारे में पढ़ा था और पता चला था कि वे बहुत महान थे। लेकिन ये मुझे आज तक समझ नहीं आया कि किसी भी प्रकार की महानता का पैमाना क्या हो? अगर बड़ा साम्राज्य महानता का पैमाना है तो सबसे महान ब्रिटिश साम्राज्य कहलायेगा। अगर एक व्यक्ति की बात करें तो इतिहास के हिसाब से चंगेज खान ने सबसे बड़े क्षेत्र में कब्ज़ा किया था। रानी लक्ष्मीबाई ने कोई जंग नहीं जीती थी लेकिन बहुत बहादुरी से लड़ने वाली प्रथम भारतीय महिलाओं में से एक थीं इसलिए वे भी महान कहलाईं। या फिर यूँ कहा जाए जिस जगह जितने अच्छे कहानीकार पैदा हुए, उन्होंने अपने अपने क्षेत्र के राजा की चाटुकारिता करते हुए चापलूसी गीत लिखे और उनके समय के राजा-रानी को उन्होंने महानतम बना दिया।

एक और ख़ास बात कि मेरे वाले शिशु मंदिर में शायद ४-५ मुस्लिम ही पढ़ा करते थे, सरदार शायद एक भी नहीं था, शायद क्रिसचियन भी नहीं। मुझे उस समय बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि ये अनुपात एक बहुत घिनोनी प्रकिया के तहत था। हम में से किसी को नहीं बताया गया था कि राष्ट्रीय स्वयं संघ को आज़ादी के समय अपनी घिनोनी विचारधारा के लिए बेन किया गया था। ये अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर कहा जाए कि अगर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे संघठन न होते तो हो सकता है, बंटवारा भी नहीं हुआ होता। ऐसे संघठनो के कारण ही जिन्ना (जो कि खुद भले ही कट्टर मुस्लिम नहीं थे) को मुस्लिम संघठनो को एक कर के पाकिस्तान की आवाज़ बुलंद करने में मौका मिला। संघ पहले बेन था अगर ये बात अगर शिशु मंदिरों में पढाई जाती तो शायद वो भारत में जिस तरह फैले हुए हैं वैसे नहीं फ़ैल पाते क्योंकि हमारा समाज एक बार कलंक लगने के बाद किसी चीज़ को स्वीकार नहीं करता है।

खैर, क्या बेन हटने के बाद संघ की विचारधारा में कुछ बदलाव आया?

शिशु मंदिर में गाँधी जयंती बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती थी। गाँधी जी की आत्मकथा वहन कभी नहीं पढाई गई बल्कि एक अलग से किताब पढाई गई जिसका नाम सहायक वाचन था। कभी नहीं बताया गया कि गाँधी के हत्यारे इसी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ही देन थे। आज जब आरएसएस सत्ता में है तो गोडसे जयंती मनाने जैसी बातें सामने आ रहीं है। ये बिलकुल वैसा ही है जैसे मुस्लिम आतंकवादी उनके आतंकवादी संघठनो के लिए हीरो हैं।

बचपन से मैं जिस सामजिक माहोल में पला बढ़ा हूँ वहां गाँधी जी का कितना महिलाओं से सम्बन्ध था, नेहरु सिगरेट पीते थे और कितने चरित्रहीन थे। पटेल को प्रधानमंत्री बनना चाहिये था, गौमूत्र हीरे से भी पवित्र है, गोबर के अनेक फायदे, गाय ओक्सीजन लेती है ओक्सीजन छोडती है, ये सब चर्चा बहुत आम हुआ करती थी। कभी सोचा नहीं था कि ये सब राष्ट्रीय मुद्दे बन जायेंगे। इतना ज़रूर समझ आ गया है कि उस समाज में किसी भी आदमी के कर्म के बजाय इन बातों पर अधिक महत्त्व दिया जाता है कि उसने कपडे कैसे पहने हैं ? (ख़ास तौर पर महिलाओं के लिए) उसके कितने लोगों से शारीरिक सम्बन्ध हैं और वो शराब या सिगरेट पीता है कि नहीं। संस्कृति का मतलब बस इतना ही था उन सब के लिए। जबकि सच ये है कि कला और संस्कृति को एक दुसरे से अलग नहीं किया जा सकता। अगर आप अपनी संस्कृति में पैदा हुए उम्दा कलाकारों की इज्ज़त नहीं करते तो आप किसी भी प्रकार की संस्कृति से जुड़े नहीं हैं।

मैं एक बार मेरे एक ओबीसी मित्र के घर गया। उसके घर पर सिर्फ़ और सिर्फ़ भीम साहित्य था। जबकि मेरे घर में मैंने वो किताबें कभी देखी भी नहीं थी। मेरे घर की ज़्यादातर क़िताबे धार्मिक थीं। कादम्बिनी, विज्ञान प्रगति, मुल्ला नसरुद्दीन के किस्से, जय प्रकाश चोकसे के “गोया कि” वाले आर्टिकल्स, चम्पक, कोमिक्स ने मेरी फेंटसी दुनिया को कुछ और पंख दिए और मुझे कट्टर धर्मावलम्बी होने से बचा लिया। लेकिन जिस व्यक्ति ने सिर्फ़ एक तरह का साहित्य अतिरेक में पड़ा हुआ हो, वो सामने वाले अलग व्यक्ति की बात सुनता भी है तो मुझे नहीं लगता कि वो कुछ समझ भी पाता होगा।

अटलजी के गुज़रने से पहले मैं कुछ आरएसएस के लोगों से मिला था। चूंकि मैं ब्राह्मण हूँ और शिशु मंदिर में पढ़ा हुआ हूँ इसलिए वे कुछ ज़्यादा ही खुल के अपने इरादे मेरे सामने रख रहे थे। वे मेरी लेखनी की कीमत लगा के उसका दुरूपयोग करना चाह रहे थे । उन्होंने मुझे बताया कि किस तरह अटलजी की हालत अब ठीक नहीं है वे कभी भी गुज़र सकते हैं। इसलिए उनकी मौत के बाद भाजपा और आरएसएस किस तरह इंटरनेट के ज़रिये उसे एनकेश करेगी। और उनके हिसाब से गुज़रे हुए व्यक्ति की मृत्यु को एन्केश करने में कोई ख़ामी तो है नहीं। थोडा बहुत तर्क-वितर्क होता तो कह देते कि कोंग्रेस ने भी तो राजीव गाँधी और इंद्रा गाँधी की डेथ को एन्केश किया था। लेकिन उनकी मृत्यु अचानक थी और यहाँ एक पूर्व प्रधानमंत्री की नेचुरल डेथ से पहली उनकी तैयारी बेमिसाल थी। अटलजी की मृत्यु के बाद वो तैयारी उनके बड़े काम आई।

अटलजी का हमेशा से बहुत सम्मान रहा। शायद उनका कवि-ह्रदय ही उन्हें आरएसएस के इतने करीब होने के बावजूद उन्हें कट्टर होने से बचाता रहा वर्ना बहुत ही कम लोगों के लिए इनसे बचना संभव रहा होगा। ख़ास तौर पर जब उन्हें आशाराम के साथ डांस करते देखा, सावरकर के बारे में उनके विचार सुने। अब जब सावरकर को पढता हूँ तो पता चला कि वे भी कवि थे और नास्तिक भी थे। भगत सिंह भी नास्तिक थे लेकिन हमें कभी इन दोनों की नास्तिकता के बारे में नहीं बताया गया था। सावरकर का हिंदुत्व बदले की भावना से प्रेरित था क्योंकि उन्होंने अपने आसपास भारी मात्रा में हिन्दुओं का जबरदस्ती धर्मातरण देखा था। सावरकर के दिमाग में जन्मी घृणा की मैं कल्पना कर सकता हूँ। बचपन में हुई ऐसी किसी भी घटना से उबरना लगभग असंभव होता है। इतनी हिंसा देखने वाले व्यक्ति से ये देखना और असंभव रहा होगा कि अहिंसावादी व्यक्ति लोगों का ह्रदय जीत रहा है। सावरकर ब्रिटिश राज के मुताबिक़ उस वक़्त के आतंकवादी थे क्योंकि उन्होंने एक कलेक्टर की हत्या की थी। उन्हें जेल हो गई। सावरकर ने जेल से बाहर आने के लिए ब्रिटिश सरकार से माफी मांगी थी। अब जब मैं इसे देखता हूँ तो ये बड़ा अजीब कृत्य दिखता है। क्या माफ़ी माँगना जेल से बाहर आने का इकलौता तरीका था? शायद हाँ। सुभाष चन्द्र बोस और सावरकर दोनों हिटलर से प्रभावित थे। एक तरफ सावरकर ने स्वयं सेवक संघ के ज़रिये अपनी सेना बनाने की कोशिश की वहीं बोस ने आज़ाद हिन्द फौज बनाई। दोनों का ही भारतीयों को यातनाओं से आज़ादी दिलाने में उतना योगदान नहीं हो पाया जितना वे चाहते थे।

सावरकर जयंती हमारे स्कूल में बड़ी धूम-धाम से मनाई जाती थी। सावरकर एक लेखक थे १८५७ की क्रांति पर उनने किताब लिखी थी वो किताब कभी स्कूल में पढाई नहीं गई। वे एक अतिमांसाहारी ब्राह्मण भी थे स्कूल की किताबों में पढाया जाता था कि उनने जाने कितना लम्बा समद्र तैर कर पार किया था लेकिन सच बाद में पता चला कि वे तो कुछ देर तैरने के बाद ज़मीन पर पहुँचते ही पकडे गये थे। जेल से बाहर आने के बाद उन्हें अंग्रेजों की सेवा करने और गाँधी का विरोध करने के लिए पेंशन भी मिलने लगी थी। हिटलर के राष्ट्रवादी केम्पैन ने उनके दिमाग की घंटी बजाई। उन्हें समझ आ गया था कि हिन्दुओं को भी शुद्धता के नाम पे उसी तरह बरगलाया जा सकता है जिस तरह आर्यन्स को बरगलाया गया था। यही वो एक चीज़ थी जो उन्हें क्रांतिकारी होने का सम्मान वापस दिला सकती थी, वर्ना उनकी इज्ज़त का मटियामेट हो ही चुका था। जेल से निकलने के बाद सत्ता के लालच में उन्होंने संस्कृति के नाम पर हिन्दू धर्म का दूरुपयोग शुरू किया। ये सब हमेशा उन्होंने बेकसीट पर बेठ कर किया। इसके लिए उन्होंने ऐसे सभी लोगों को जोड़ा जिन्होने बचपन में अपने आसपास धर्मातरण और हिंसा देखी हो। उन्ही के साथी गोलवलकर थे। गोलवलकर के जन्मदिवस पर मैंने उनका अभिनय स्कूल के मंच पर बड़ी ज़ोर-शोर से किया था। उन्होंने ही मुस्लिमों और ईसाईयों को भारत का दुश्मन बताया था। गोडसे भी उन्हीं के साथी थे। मुझे तब पता नहीं था कि मैं जिस गोलवलकर का अभिनय कर रहा हूँ उसकी विचारधारा कितनी ज़्यादा कट्टर थी।

अब जब आरएसएस सत्ता में है तो 2 अक्टूबर को शास्त्री और गाँधी को भिडाने की जद्दोजहद शुरू हो गई है। “ताशकंद फाइल्स” के कुछ डाय्लोग्स खुले तौर पर उन्हें भिड़ाने की कोशिश कर रहे हैं। शास्त्री का कार्यकाल सिर्फ दो साल का था, अगर वे और ज़्यादा समय जिंदा रहते तो शायद आरएसएस और गोलवलकर के नफरत की चाशनी से सराबोर इरादों को समझ पाते। आरएसएस प्रमुख को शास्त्री जी ने १९६५ के युद्ध के वक़्त विचार-विमर्श के लिए बुलाया था इन्हीं बातों को संघ भुनाने की कोशिश में लगा है। पहले ही पटेल और नेहरु का काल्पनिक मल्ल-युद्ध कराने में संघ पहले ही सफल हो चुका हैं। ये बिलकुल वैसा ही है जैसे बचपन में हम सचिन और सौरव गांगुली में से कौन महान है, इस पर लड़ा करते थे। जबकि दोनों भारतीय क्रिकेट को नयी ऊँचाई पर ले कर गये। क्या फ़र्क पड़ता है एक लेफ्ट हेंडर बेट्समेन था दूसरा राईट हेंडर और जबकि दोनों असल ज़िन्दगी में लेखनी में इसके बिलकुल विपरीत हैं।

अब सवाल ये है कि मुझे शिशु मंदिर में ही क्यों मेरे माता-पिता ने भर्ती किया। इसके पीछे कोई लम्बी गणित नहीं थी। बहुत विचार कर के नहीं किया गया था, लेकिन किया जाना चाहिए था। उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण ये था कि स्कूल घर से बहुत नज़दीक था। दूसरा मेरे बड़े भाई भी उसी स्कूल में थे। और तीसरा सबसे महत्वपूर्ण कारण कि इसी शिशु मंदिर से उस समय सबसे ज़्यादा बच्चे मेरिड में आते थे हालाँकि हमारे माता-पता का ये सपना हम दोनों भाई कभी पूरा नहीं कर पाए। हाँ, उनको इतनी संतुष्टि ज़रूर है कि हमें होशयार बच्चों में गिना जाता था। इंग्लिश मीडियम स्कूल में हमें इसलिए नहीं भेजा गया था क्योंकि हमारे घर से दूर भी थे, फ़ीस उनकी ज़्यादा थी और दिमाग के एक कोने में माता-पता को धर्मातरण का डर भी था।

मैं जिस मध्यप्रदेश में पैदा हुआ था, उसका नक्शा अलग था। छत्तीसगढ़ उसका हिस्सा था। जो लोग भारत-पाकिस्तान में व्यस्त रहते हैं या अपने अपने प्रदेश के स्पेशल स्टेटस के लिए लड़ने पर उतारू हैं, ऐसे ही लोगों को आसानी से मध्यप्रदेश-छतीसगढ़ के लिए भी लड़ाया जा सकता है। 

एक ऐसा ही बंटवारा हमारी स्कूल में भी हुआ था। २००३ तक स्कूल को-एड थी। लड़के-लड़कियां या फिर शिशु मंदिर की भाषा में कहूँ तो सारे भाई-बहिन साथ में पढ़ते थे। २००३ में बंटवारा हुआ और लड़कों को मोतीनगर से पगारा भेज दिया गया। उस समय मोतीनगर से पगारा की दूरी ३ प्रकाशवर्ष लगती थी। ये दूरी सिर्फ़ स्कूलों के बीच नहीं थी जाने कितने दिलों के बीच हो गई थी। जाने कितने भाई-बहिन उसमे से पति-पत्नी भी बने और जाने कितने टूटे दिल आज भी तड़प रहे हैं, पता नहीं। 

पगारा जो भारत के सबसे बड़े शिशु मंदिरों से एक है, उसकी वैसी हवा नहीं बन पाई जैसी मोतीनगर की थी। चूंकि वहां आसपास लड़कियां नहीं थी इसलिए लड़कों की और शिक्षकों की भाषा कुछ ज़्यादा ही ख़राब हो गई। छोटे-मोटे क्राइम भी होने लगे। किसी शिक्षक ने स्टूडेंट को सज़ा दी तो उसे पीट भी दिया गया। लेकिन इन छुट्टा सांडों को बड़ी ख़ुशी महसूस होतीं थी जब विज्ञान-मोडल, वैदिक गणित, और सांस्कृतिक प्रतियोगिता होती थी क्योंकि उसका आयोजन मोतीनगर में होता था। धडकते दिलों को तब ठंडक मिला करती थी।

फ़िर अब जब बड़ा हुआ तो पता चला ये बंटवारा भी एक सोची समझी साजिश के तहत होता रहा है। आरएसएस में तो लड़कियां का आना प्रतिबंधित है उसके लिए तो उन्होंने अलग से राष्ट्र सेविका समिति बना रखी थी। वेशभूषा में काफ़ी अंतर है दोनों की, जहाँ मर्द हाफ पेंट में सब कुछ किया करते हैं वहीँ लड़कियों को हाफ पेंट में जाना एलाऊ नहीं है। दो अपोज़िट सेक्स बिना किसी बंधन के समाज में एक साथ रह सकते हैं ये आरएसएस की सोच के खिलाफ़ है। 

एक ख़ास बात आपने देखी होगी कि किसी भी शिशु मंदिर से कभी कोई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी नहीं निकला। कारण बड़ा ही सामान्य है। शिशु मंदिर की कोई अपनी क्रिकेट, फुटबाल या होकी टीम नहीं होती थी। टीम गेम के नाम पर सिर्फ़ कबड्डी, खो-खो थोडा बहुत हैण्डबाल था। ऊंची कूंद, लम्बी कूंद के लिए जो असल सुविधाएं चाहिए होती हैं वो स्कूल में थी नहीं। अब क्या ये मात्र संयोग है कि दुनिया की सबसे बड़ी स्कूल चैन में से से एक भी अच्छा खिलाडी नहीं निकला न कोई वैज्ञानिक? अगर आप अच्छे खिलाड़ी वैज्ञानिक बन जायेंगे तो इन्सान-इनसान में फ़र्क नहीं करेंगे। सर्वांगीण विकास का मुखोटा पहने शिशु मंदिरों के पीछे काम करने वाला दिमाग ये चाहता ही नहीं है।

शिशु मंदिर में पढ़े और उसे कट्टरता की हद तक फ़ॉलो करने वाले ज़्यादातर लोग आपको कट्टरवादी, जातिवादी, क्षेत्रवादी, रंगभेदी और भाषावादी ही मिलेंगे। वे ये भी चर्चा करते हैं भारतीय क्रिकेट टीम में ज़हीर खान और मुहम्मद सामी क्यों खेलते हैं?     

हम सारे बच्चों के आसपास कैसा मकड़जाल बुना जा रहा था, अब समझ आता है। आरएसएस की ज़्यादातर फंडिंग अमेरिका से होती है जिसका ज़्यादातर उपयोग क्वानटिटी एडुकेशन में होता है कवालिटी एडुकेशन में बिलकुल भी नहीं। चेरिटी दिखाने के लिए कुछ हिस्सा बाढ़ पीड़ितों या ऐसी परिस्थितियों के लिए रखा जाता है। और ज़्यादा फंडिंग के लिए शिशु मंदिर, विद्या मंदिर और तरह तरह की संस्थाएं बनाई गईं जिनसे निकलने वाले लोग जो हायर एडुकेशन में जाकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् में जा कर शामिल हो जाते हैं। अगर आगे पढाई नहीं की तो उनके लिए संघ परिवार है ही। कुल-मिलाकर शिशु-मंदिर, संघ ज्यादतर उन सभी छात्रों के अस्तित्व से जुड़ चुका है जो वहां पढ़े हैं। उनको अपने खुद के अस्तित्व पर उतना गर्व नहीं इसलिए गर्व करने का कारण उन्हें संघ देता है। आप जब उनके पक्ष में अच्छा भाषण देते हो तो आपको वे भारत के कई हिस्सों में घुमाते भी हैं और सुरक्षा भी प्रदान लरते हैं। एक बहुत बड़ा वोट-बेंक इस तरह तैयार किया गया। सावरकर की कुंठित हिंसक आत्मा ऊपर अब मुस्कुरा रही होगी।    

दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का व्यापारी देश जिसने महिला सशक्तिकरण के नाम पर उनसे हथियार बनवाए, पहले लादेन बनाता है फिर दुनिया को उससे बचने के लिए हथियार बेचता है ताकि दुनिया में शांति बनी रहे। पहले उसने मुस्लिम आतंकवाद को दुनिया में बेंचा लेकिन अब उन देशों में इतनी ग़रीबी आ चुकी है और वे आपस में ही एक दुसरे को मारने लगे हैं। अब हथियारों का धंधा बढाने के लिए दुनिया को नए विलेन की आवश्यकता है। ये विलेन इस बार फ़िर से शुद्धता के नाम पर आया है असली हिन्दू, नकली हिन्दू, कट्टर हिन्दू, दलित हिन्दू को उसी तरह बढ़ावा दिया जा रहा है जैसे कट्टर मुसलमान, असली मुसलमान किया गया था। कुछ ऐसा ही हिटलर के टाइम में आर्यन ब्रीड को लेकर किया गया था। 

स्कूलिंग में देशभक्ति का रस भी बड़ी सोच समझकर मिलाया जाता है। तालीम इतनी अच्छी दी नहीं जाती जिससे इस बात को पक्का किया जाता है कि ज़्यादातर लोग दुनिया न घूम पायें। देशप्रेम में संस्कृति का तड़का भी लगा दिया जाता है ताकि आप किसी भी संस्कृति के बारे में न तो पढ़ें न जाने न समझें, दूसरी संस्कृतियों को अछूत बना दिया जाता है। अगर कोई गलती से दूसरी संस्कृतियों के संपर्क में आ जाता है तो उसे पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित बताकर बायकोट किया जाने लगता है।

मेरा खुद का उदाहरण है। मैं जहाँ हिन्दू ग्रन्थ पढ़ा हूँ तो कुरान, बाइबिल और बुद्दिस्म भी पढ़ा हूँ। मैंने प्रेमचंद, कृष्णचंदर, निर्मल वर्मा, भीष्म साहिनी, गिरीश कर्नार्ड और हरीशंकर परसाई को सबसे ज़्यादा पढ़ा है ये सारे हिंदी और हिंदी संस्कृति के सबसे बड़े समर्थक रहे हैं। लेकिन मैंने इतना ही अल्लामा इकबाल, कुर्तुलैन हैदर मिर्ज़ा ग़ालिब को पढ़ा है। एक तरफ़ फ्युदोर दोसोयेवासकी, तोल्स्तोय, कामू, सात्र का मुझपे असर है तो सिंक्लेयर लेविस, चेखोव, बर्नार्ड शॉ, ओरवेल और मार्क ट्वेन का भी है। मैं क्लासिकल म्यूजिक सुनना ज़्यादा पसंद करता हूँ या गाने भी ऐसे जिनका कुछ मतलब हो चाहे हो इरशाद कामिल लिखें या साहिर लुधयान्वी। कौन क्या पहनता है इससे मैं उसके मोर्डन होने को परिभाषित नहीं करता। और मैं लगभग हर लोक कला को देखने में उत्सुक रहता हूँ। मैं मेरे क्षेत्र मेरे स्कूल और मेरे आस-पड़ोस के प्रति ज़्यादा संवेदनशील हूँ क्योंकि मैं वहां पला बढ़ा लेकिन इस कारण से मेरे लिए वे दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। दुनिया में हमेशा सर्वश्रेष्ठ से बेहतर होने की गुंजाईश रहती है और रहेगी।

मेरी यादें जुड़ी हुई हैं मेरे स्कूल से। मैं उन्हें स्कूल से अलग कर के नहीं देख सकता। मुझे मेरे स्कूल से कोई शिकायत भी नहीं, ज़रा सा भी नफ़रत की भावना नहीं है।

शिशु मंदिर में छह पीरियडस के बाद सांतवा पीरियड सदाचार का होता था। मैंने सदाचार वाला विषय थोड़ा ज़्यादा अच्छे से पढ़ा है जो वो शायद नहीं चाहते थे।


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