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संतोषम् परम् सुखम

संतोषम् परम् सुखम

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हल्कू बहुत दुविधा में था कि वो किसको वोट दे। एक तरफ उसके बापू के मालिक चुनाव में खड़े थे और दूसरी तरफ उसकी विचारधारा वाली पार्टी के पुराने विजेता उम्मीदवार। सोचते सोचते मतदान का दिन भी करीब आ रहा था। मन की बेचैनी बढ़ रही थी।

वोटिंग के ठीक पहले की रात वो सिर्फ यही विचार करता रहा कि आखिरकार वोट किसे दे, एक तरफ विचारधारा वाला उम्मीदवार वार और सरकार का प्रतिनिधि जिसकी खातिर वो खुद भी जीत के लिए आश्वस्त था जिसको जिताने के लिए खूब लालच भी दिया गया और दूसरी तरफ बापू के मालिक जो उसके परिवार के खैर ख्वाह और समदर्द रहे। सुख दुख में साथ दिए, मदद के लिए हमेशा तैयार रहे। यही सब सोचते सोचते उसे नींद लग गई।

अगले सुबह पांच बजे ही उसकी नींद खुल गई, वोट जो डालने जाना था भाई, फिर क्या नित्य क्रिया से फुरसत हुआ और साइकिल उठाया और चल दिया मतदान केंद्र, रास्ते भर, मतदान की लाइन में और यहां तक ई वी एम मशीन के सामने तक वो इसी दुविधा से ग्रसित रहा। बटन दबाने के कुछ छण पहले वो एक बारगी मन में सोचा और यकबयक उसकी अंगुली उसी उम्मीदवार के सामने वाली बटन पर दबी जो उसकी उम्मीद को वर चुका था।

जिसने उसके परिवार की मदद के लिए अपने हाथ खोले। जिसने उसके परिवार को जीवनयापन का रास्ता अख्तियार किया, जिसकी वजह से वो विचारों की विचारधारा जानने लायक बना। मतदान केंद्र से बाहर निकलते हुए उसने अंगुली में लगे स्याही के निशान को देखा, गहरी सांस ली और मुस्कुराया। यह संतोष- सुख और निष्पक्ष मतदान का परम सुख था। उसको ऐसा लगा जैसे कि उसके मन का बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो।


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