आईने के सामने, प्यार हो गया
आईने के सामने, प्यार हो गया
बला की खूबसूरत शिल्ला से एक बार मैंने पूछा, "क्या तुम में प्राण भी हैं ?"
वह बोली, "क्यों क्या बात है, मुझसे प्यार हो गया है क्या, जो यह सवाल पूछते हो।"
मैंने कहा, "नहीं, ऐसी कोई बात नहीं, आप सुंदर लग रही हो। सुंदरता से तो हर किसी को प्यार होता है।"
वह बोली, "आपको है कि नहीं ?"
मैं कुछ हाँ या ना में सोचता, इससे पहले वह बोली, "आप अपने बारे में इतना भी नहीं जानते क्या। मैं बताती हूँ, मैं कैसे बनी। मुझे छैनी-हथौड़े से पत्थर को तोड़ कर मशीनों से तराश कर बनाया गया है। मेरी आँखें हमेशा खुली रहती। इनकी पलकें सिर्फ मेरी सुंदरता बढ़ाने के लिए हैं। मैं इन्हें कभी बंद नहीं कर सकती। मैं कोई याद संजो नहीं सकती। मेरा दिल भी पत्थर का है, इसमें धड़कन भी नहीं है, यह कुछ महसूस नहीं करता। मुझे देखने वाले ही सब कुछ अपने-अपने तरीके से महसूस करते हैं। कोई मेरी कमर, कोई मेरी आँखों की खूबसूरती बयां करता है। किसी को मेरी काया सुंदर लगती है अब मैं कैसे बताऊँ। आने वाले सब लोग अपने-अपने तरीके से मुझे अपने-अपनी यादों में ले जाते हैं।"
बहुत चाहते हुए मेरे मन में यह सवाल उठा, काश इसमें प्राण भी होते। तभी लगा शायद मेरी आवाज उस शिल्ला ने सुन ली और बोली, "अगर मुझमें प्राण होते तो क्या तुम-मुझे स्वीकार करते ?"
अनायास मेरे मन से निकल गया, "हाँ-हाँ क्यों नहीं, कितनी सुंदर दिखती हो, मैं तुम्हें संजोकर, संवारकर रखता। तुम्हें कभी मैला नहीं होने देता।"
"अच्छा पता है तुम्हें मैं कैसे खड़ी होती हूँ ? जैसे तुम दो पांव पर खड़े होते हो ना मैं ऐसे खड़ी नहीं होती। मुझे बनाने वाले मूर्तिकार ने मेरे लिए चार स्तम्भ बनाये जिन पर मैं खड़ी हूँ । जानते हो वह क्या है ?"
मैं आश्चर्य से उसकी तरफ देख रहा था। कभी लगता मैं आईने में किसी मूर्ति को देखता हूँ। कभी लगता मैं कोई प्रतिबिंब देखता हूँ। कभी लगता नहीं नहीं यह सब कुछ नहीं यह सब वह है जो मेरे आस-पास है। मैंने कई रिश्तों में लोगों में जिया है। मैंने देखा है एक आकृति मेरे मस्तिक में एक मूर्ति के रूप में जड़ बनकर खड़ी है। यह मेरी कल्पना भी हो सकती है।
इतने में आवाज आती है, "नहीं नहीं, यह तुम्हारा भ्रम नहीं यही यथार्थ है। यही यथार्थ है की तुम मेरा प्रतिबिंब देख रहे हो। मैं ही खड़ी हूँ उस आईने के सामने। क्यों, क्यों इतने हैरान होते हो, जानना नहीं चाहोगे, मैं ऐसी कैसी बन गई। मैं जन्मी हूँ आप, आप और उनके अहम से। मैं जन्मी हूँ उनकी क्रूरता से, उनकी कटुता से-लालच से। मैं महसूस कर सकती हूँ उनके स्वार्थी मन को। मैं देख रही हूँ, मैं देख सकती हूँ आप, आप और आपको, उन सबको जो खड़े हैं मूक दर्शक बन कर। आप कह सकते हैं मुझे अभिशपित हाँ अभिशपित पर, ज़रा सोचिये उस पुरुषार्थ को; जो स्वार्थ, कटुता लोभ और लालच के चार स्तंभों पर खड़े हैं, जिनके दिल में औरतों के प्रति अवांछनीय भावना मैं देख रही हूँ। मैं देख रही हूँ, उन सबको जो जन्म लेते हैं, औरत से दिल लेते हैं, पर उनके दिल में कहीं किसी कोने में भी, औरत का दिल-माँ के रूप में, बहन के रूप में, बेटी के रूप में, या फिर दोस्त के रूप में कहीं नहीं होता। उनके लिए- मैं, वासना पूर्ति का एक साधन हूँ। वह मेरे शरीर से आगे, मुझे देख ही नहीं पाते। हाँ मैं उन्हीं के लिए स्टैचू हूँ, एक शिल्ला, एक पत्थर हूँ। हाँ, अगर मैं ऐसी ना बन पाती तो-क्या मैं, ऐसे लड़ती रह पाती।"
"हर दिन होते बलात्कार, कभी दहेज़ लोभ में मरती, और कभी घरेलू हिंसा से उत्पीड़ित होती। महिला के लिए कहीं तो होगी न्याय व्यवस्था से उम्मीद-सम्मान और स्वाभिमान से जीने के हक़ की जरूर, नहीं तो वो ऐसे लड़ती न रह पाती-दोषी को सजा दिलाने को, जानती है जी नहीं पाएगी, टूट चुके सपने और एहसास, फिर भी जीती हे उम्मीद के साथ, करती है बस न्याय का इंतज़ार, जानती है न्याय भी पहले, आरोपी को मिलता हैं, कहीं निर्दोष को हो न जाए सजा, फिर भी जीती है एक उम्मीद के साथ न्याय की। अब आप ही बताओ क्या अब भी मुझे प्यार करोगे।"
"हाँ, क्यो नहीं। मैं चलूँगा तुम्हारे साथ, नदी के उस पार और करता रहूँगा तुम्हारा इंतज़ार जैसे दिया जलकर रहता है साथ मँझधार में,साथ दूर तक।"