साझा- लिफाफा
साझा- लिफाफा
मक्की के आटे और सरसों का साग का स्वाद तो शायद जिंदगी में कभी आपने भी ज़रूर लिया होगा। अपने देश के अलग -अलग प्रांतों में कहीं इसे छल्ली, कहीं इसे भुट्टा, और कहीं- कहीं इसे मक्का भी कहा जाता है। भूनी हुई छल्ली बड़ी स्वादिष्ट होती है। गर्मियों के मौसम में गली-नुक्कड पर भुट्टे की रेहड़ी लगी आपको मिल जाएगी। बारिश के मौसम मे तो भूनी छल्ली खाने का अलग ही मज़ा आता है। हाँ यह अलग बात है की पिक्चर हॉल में , पॉपकॉर्न खाने का भी एक अलग ही मज़ा है, जो और भी बढ़ जाता है जब कोई साथ हो, और पॉपकॉर्न का लिफाफा साझा हो । सुना है कॉर्न को एक कोलेस्ट्रॉल फाइबर माना जाता है, जो दिल के मरीज़ो के लिए बहुत अच्छा है।
मेरे लंच का टाइम हो गया था, पर मैं आज अपना खाना नहीं लाया थाI सोचा चलो आज नीचे कुछ खा पी लेते हैंI जैसे ही ऑफ़िस से उतर कर नीचे की ओर जाने लगा, हल्की सी बौछार के बाद प्यारी सी खिली हुई धूप बहुत अच्छी लग रही थी। अचानक दाईं तरफ निगाह पड़ी, पार्किंग के पास, पार्क के गेट पर एक आंटी जी भुट्टा भून रही थी I इतने में एक दोस्त की आवाज़ आई , रहेन..!
हेलो ....मोंटी
मोंटी बोला.. आ-जा लंच करते हैं ,
मैंने कहा- नहीं यार, आज लंच लाया नहीं, भुट्टा खाने का मूड है
O .K. See you, अच्छा मिलते हैं
और मैं धीरे कदमों से पार्क के गेट की तरफ चल दिया जहाँ, आंटी जी, छल्ली भून रहीं थी
दुकान के नाम पर, एक कच्चे कोयले का थेला, एक छल्ली का बड़ा थेला, छैं ईटें- जिसमे से दो पीछे, दो दाएँ और दो बाएँ ओर, बस इनके बीच ईटों पर एक जाली रखी थी और उस पर रखे कुछ कच्चे कोयले जो जल कर लाली और आंच दे रहे थे, कच्ची छल्ली को भूनने के लिए I
मैं सोचने लगा इनसे पूछूं…. आप यह काम कब से कर रही हो I पर अनजाने में पूछना शायद ठीक नहीं लग रहा था ..
जैसे ही मेरे से पहले आये ग्राहकों से वो निबटी , मैने कहा आंटी जी एक अच्छी सी छल्ली खिला दो
वो बोली, यह 10 की है और यह 15 की, कौन सी दूँ, पहले बताना ठीक है ना, आजकल महँगाई जो हो गई है
आपको जो ठीक लगे
मेरे पास तो सब ठीक है, ख़राब थोड़े लाएंगे, यहाँ कई बच्चे-बूढ़े तो यही खा कर दिन का गुजारा कर लेते हैं,.. हूं..., हम जानत हैं ! आप बोलो कितने वाली दूँ
15 वाली दे दो .....,
यहीं काम करते हो या किसी से मिलने आये हो ...?
मैंने कहा नहीं आंटी जी....मैं तो यहां कंपनी में काम करता हूं, इंजीनियर हूं, कभी कभी कुछ कविता कहानी भी लिखता हूँ, पर खाना खाने के लिए मैं रोज़ यही आता हूंI पहले भी देखा है आप को यहांI आप लोग क्या यहीं रहते हैंI अंकल क्या करते हैं ?
मेरा इतना कहते हैं आंटी ने मेरी तरफ बड़ी घूरती हुई आंखों से देखा और बोली, क्यों मेरे चेहरे पर लिखा है क्या ?
मैंने पूछा आंटी आप नाराज़ क्यों हो रहे हो मैंने तो ऐसे ही पूछा अंकल क्या करते हैं ?
मैं भी तो यही पूछ रही हूं, मेरे चेहरे पर से लग रहा है कि मेरा खसम भी है ! मेरे चेहरे पर लिख रखा है कि मैं शादीशुदा हूं ! मैंने तो बिंदिया भी ना लगा रखी, मैंने तो सिंदूर भी ना लगा रखा, तुमने कैसे पूछा, अंकल क्या करते हैं ?
मैंने कहा आंटी सॉरी सॉरी माफ़ कर दो ग़लती हो गई
हां ग़लती हो गई ना ! छोड़ गया वो... छोड़ गया 3 साल पहले। मैं क्या करती। दारू पी कर मारे था मुझे। मैंने कहा .. निकल.. निकल जा यहां से…. नहीं तो रिपोर्ट करा दूंगी पुलिस में। डर के मारे भाग गया। अंकल की बात करो तुम....
मैं थोड़ा सा स्तब्ध था। आंटी अपने आंचल से शायद, आँसू पहुंच रही थी, जो धुएँ से निकले थे या किसी याद की चुभन से। फिर अपने थैले में से एक छोटा सा शीशा निकाला और अपना चेहरा उसमें देख वापस रख दिया । इतने में कोयले की आंच धीमी पड़ने लगी थी और आंटी फिर अपने मुंह से ही हवा देकर आंच तेज़ करने लगी। कुछ धुआँ चेहरे पर जमने लगा। सुबह से कितनी बार ऐसे किया होगा की उनके चेहरे पर धुएँ की एक परत सी जम गई थी ।
मेरे लिए छल्ली भूनते-भूनते आंटी बोली, तुम्हारे चेहरे पर तो कुछ दिखाई नहीं दे रहा, शादीशुदा हो क्या ?
मैने कहा... जी हाँ
आंटी बोली, कर ली थी या हो गई थी ..
इस सवाल तैयार नहीं था। मेरे से रहा नहीं गया, मैने पूछ लिया इस का क्या मतलब..
मेरी और देख, वो बोली, प्यार करने और हो जाने का फर्क समझते हो या नहीं ... बस यही फर्क होता है ...
लंच टाइम खत्म होने को था इसलिए आंटी के पास फिलहाल कोई और ग्राहक नहीं था। बात समझ, मैं हिम्मत कर आंटी से पूछ लिया,
आंटी चेहरे पर इतनी मिट्टी जमी है साफ क्यों नहीं करती हो ?
आंटी बोली कर लूंगी... तुम बताओ जल्दी..छल्ली कैसी खाओगे, मसाले वाली या खट्टी मीठी..
मैंने कहा जैसे आपको अच्छी लगे वैसे ही खिला दो.. और यह बात पूरी होते होते उन्होंने मेरे हाथ में छल्ली दे दी और कहा लो खा लो। पता है.. मैं बिंदी सिंदूर क्यों नहीं लगाती ? यह चेहरा ऐसे बार- बार पोंछ कर बिंदी उतर जाती है। यह भी तो अच्छा है धुएँ से चेहरा छुपा रहे- किसी को भी नहीं दिखेगा कौन है। धुएँ - मिट्टी से ढके चेहरे को कोई जानने वाला भी पहचान ना सकेगा। बेटा आजकल ज़माना बहुत ख़राब हैपति -पत्नी की ज़िंदगी एक साझा लिफाफे की तरह होती है, एक साइड भी ज़्यादा खींचे तो जैसे लिफ़ाफ़ा फ़ट जाता है, ऐसे ज़िंदगी भी बिखर जाती है जैसे क्यों ठीक है ना मेरी बात? छल्ली वाली आंटी की बात सुन मेरा रोम रोम कांप रहा था। मैं सोचने पर विवश था जिंदगी की पढ़ाई किताबों की पढ़ाई से कहीं बहुत गहरी है। मैं पूछना चाह रहा था उनसे, उनके चेहरे पर इतनी झुर्रियाँ क्यों है ? फिर लगा किसी के ज़ख्म कुरेदना अच्छी बात नहीं। मुझे नहीं पूछना चाहिए पर मन जिंदगी को समझना चाहता था और लग रहा था कि जो आज सीख लूंगा समझूंगा शायद वह मेरी जिंदगी में किसी मोड़ पर मेरे काम आएगा। मैं पूछ ही बैठा आंटी आपके चेहरे पर यह इतनी झुर्रियाँ क्यों है ? उस के बाद जो वो बोली और मुझे करने को कहा, उसने मुझे झकझोर कर रख दिया ....
वो बोली,
मेरे बेटे जैसे तुम भी
पढ़े लिखे लगते हो !
इस लिए बतला रही हूँ ,
यह आड़ी तिरछी रेखाएं
मेरे बचपन से जवानी,
और जवानी से बुढ़ापे के,
प्यार और मोह की
कहानियाँ और कविताएँ है सब
जो बस रात को जब मैं सोती हूँ
तब ही बोलती हैं सब,
और मैं सुन नहीं पाती हूँ
अब तुम पढ़कर सुना पाओगे क्या ?