Shanti Prakash

Drama

4.8  

Shanti Prakash

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भूख का स्वाद

भूख का स्वाद

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मेरा एक दोस्त था, लाला। वह एक प्राइवेट स्कूल में कॉन्ट्रैक्ट टीचर के रूप में कार्य कर रहा था। कम पैसे मिलने के कारण लोगों की सलाह पर उसने नौकरी छोड़ ट्यूशन और कोचिंग सेंटर में पढ़ाने का काम ले लिया था। उसका काम का समय दोपहर 2:00 बजे के बाद शुरू होता और 10 बजे के करीब आखिरी क्लास होती कोचिंग सेंटर से या आखरी ट्यूशन पर। अभी नए-नए मास्टर जी बने थे उनके पास अपना कोई वाहन भी नहीं था। हाँ चाहत तो थी कि, एक स्कूटी तो हो जाती तो अच्छा होता.. बाकी चार पहिया गाड़ी की तो अभी सोच नहीं सकते।

दिसंबर माह की रात अपने काम से 11 बजे, लाला जब रेतीली- कच्ची गलियों को लांघता हुआ, घर पहुंचने को व्याकुल रहता, तो नीरवता के वातावरण को उसकी खांसी से हलकी सी दस्तक भेद जातीI चौकीदार की लाठी जोर से बजने लगतीI गली के आवारा कुत्ते, जोर- जोर से भौंकना चालू कर देते... जैसे कोई परदेसी ही आ गया होI लाला, अपने मन के अंतः स्तल की गहराइयों में एक यात्रा कर जाताI आँखों मैं एक भाव आता और चला जाताI श्वास लम्बी होती, कदम कुछ तेज होकर, कुछ ठिठक जाते। सोचता कोचिंग सेंटर से मेट्रो तक आने के लिए १५-२० मिनट तो लग ही जाते हैं, फिर मेट्रो स्टेशन से यहाँ घर तक आने में भी तो १५ मिनट लगेंगे ही, रोज -रोज रिक्शा थोड़ी किये जा सकता है।

छोटी सी आबादी के पहली मंज़िल पर दो कमरे के एक घर में कहीं इन्तजार और प्रतीक्षा का मोह, लाला के मन में एक और गाँठ कहीं गढ़ जाताI कमरे के अंदर न्यून लाइट जलने का एहसास, यूँ टूटता, कि गली के खम्बे पे बंधी न्यून लाइट ही कमरे मे शीशे की बंद खिड़कियों से टकरा-टकरा कर उसकी आँखों को धुंधिया जातीI दरवाजे के खटखटाए जाने का आभास भी लाला को जब होता, जब नींद से भरी आँखों से होती एक छाया, मंद बोझिल सी थकी चाल से, आँगन से होती हुई सीढ़ियाँ उतरती और लाला की चुप्पी मानों खट से ताला खुलने पर आवाज बन जाती और कहती कैसी तबीयत हैI

क्यों क्या हुआ है, मेरी तबीयत को ?

रीतू, तुम इतना रुखा सा क्यों बोलती हो ?

मैंने क्या रुखा कहा है तुमसे ?

खट.... कुण्डी लगाता हुआ देव, सोचता हुआ लम्बी सांस और धीरे कदमों से सीढ़ियों से होते हुए कमरे मे बैठ पाने की अनिश्चता उसे आँगन मे ले जातीI रीतू ये फूल किसने तोड़ा है ?

नीचे वाले बच्चों नेI

और फिर कुछ मन की तरंगे कह जाती: खाना खा लोI

जैसे ही लाला खाने के एक कौर को तोड़ता तो उसे अपने कमजोर हो जाने का एहसास हो जाता। उसी पल दूसरी चपाती का आ जाना, उसे यूँ कहता जल्दी जल्दी खा ना ……कितनी देर हो गई है। पता है क्या बजा है,…और चपाती का एक कौर बहुत दूर मीलों- मीलों, लम्बी यात्रा करा जाता जिसमे जिंदगी के अनुभव ऐसा लगता है एक-एक पल का समूहीकरण है। बातों बातों में एक दिन मैंने लाला से पूछा…. तुम इतनी देर से खाना खाते हो कोई तरीका नहीं हो सकता कि तुम समय पर खाना खा लिया करो।

लाला के चेहरे पर एक अजीब सी मुस्कुराहट थी।

वो बोला, दोस्त…. जानते हो भूख के बहुत सारे अपने गुण हैं।

मैं हैरानी से उस की तरफ देख रहा था। लाला बोलता जा रहा था, भूख समय से पहले नहीं लगती और जिंदगी में कुछ ऐसा सिखा जाती है जो आप किसी से या किसी किताब से नहीं सीख सकते। मुझे लगता है जीवन जीना एक कला है जिसे सीखने के लिए बाहर कहीं कुछ नहीं ढूँढ़ना होता। बस उस एक पल की अनुभूति होती हैं जब कहीं बहुत गहरे में आत्मसात हो जाता है और "मैं" नपुंसक हो जाता है।

लाला के चेहरे पर एक गुलाब के खिले हुए फूल जैसी हँसी दौड़ जाती जिसे देख मैं सोचता, इसने ज़िंदगी कहाँ देख और ऐसे जी ली। भाभी का स्वभाव तो बिलकुल अलग ही है। मेरे से रहा नहीं गया, मैंने लाला से पूछ लिया यार एक बात बताओ.... तुम्हें यह भूख और स्वाद का फर्क का एहसास कब हुआ। मेरी बात सुन लाला ने बड़ी पैनी निगाहों से मेरी तरफ देखा और बोला, एक दिन शाम के टाइम, ऋषिकेश में गंगा किनारे मैं काफी भूख महसूस कर रहा था। पास में एक मटरी-छोले-कुलचे वाला खड़ा था। तीन चार लोग और भी उससे मटरी-छोले कुलचे लेकर खा रहे थे। एक सज्जन ने खाने के बाद हाथ में पकड़ा अखबार का कागज़ जिसके ऊपर दो कुलचे रखकर खाए थे और वो पत्ता जिसके ऊपर उसको मटरी-छोले मिले थे, खाने के बाद अपने साइड में फेंक दिया। देखते ही पता नहीं कहां से एक गाय का बछड़ा वहां बहुत तेजी से आया और उस पत्ते को चाटने लगा। उसे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि उसे कोई देख रहा है।

चाटते-चाटते उसने आसपास देखा शायद और सज्जनों ने भी अपनी जूठन वहां फेंक दिया हो जिससे शायद उसका कुछ काम चल सके। जब उसे आसपास कोई पत्ता नहीं मिला तो, मैं यह देख कर हैरान था कि वो बछड़ा पास में पड़े एक डस्टबिन की तरह मुड़ गया और वहां मुंह मार कर अपने मतलब के पत्ते ढूंढने लगा। बाहर निकालने का तो उसे मौका नहीं था, या शायद टेक्निक ना आती हो, पर कुछ मिनट बाद ही वह वहां से मेरी और मुड़ा। मेरे हाथ में एक पत्ते पर मटरी-छोले थे और अखबार में कुछ बचा हुआ कुलचा था। भूख मुझे बहुत लग रही थी। मैंने उसे कहा… हटो…. हीश, पर उसने अपनी गर्दन मेरी तरफ़ और लंबी कर दी। मैंने अपनी भूख मिटाने के लिए खुद ही वहाँ से हटना मुनासिब समझा और वह गाय का बछड़ा बड़ी मासूमियत से थोड़ी दूर जाकर बैठ गया।

मैं सोच रहा था जूठन से इसका पेट तो क्या भरा होगा, हाँ जीभ का स्वाद मिल गया होगा ... कुछ ऐसे ही… जैसे कुलचे से मेरा भी पेट तो शायद ना भरा हो.. पर स्वाद तो ले ही लिया मैं स्वाद की बात नहीं कर रहा…. मैं, भूख की बात कर रहा हूं।

भूख.. भूख, बहुत गुणी होती है। भूख बहुत हिम्मत वाली होती है, कुछ भी खा लो… हज़म हो जाता है। भूख में हर चीज बड़ी स्वादिष्ट लगती है। ऐसा लगता है जब भूख लगी होती है तो स्वाद बेमानी हो जाता है। हर चीज स्वादिष्ट लगती है। जो भी मिल जाए वह छोड़ा नहीं जाता। हां जब भूख नहीं होती तो खाने के लिए स्वाद की जरूरत होती है। जीभ को अच्छा नहीं लगे तो कुछ खाया नहीं जाता। खाना स्वादिष्ट हो तो, भूख ना भी हो.. तो भी.. आदमी खा-पी लेता है। अब देखो ना भरपेट लंच लिया हो और कोई दोस्त बोले कि, चल यार चाट पापड़ी खाते हैं... तो.. ना तो नहीं, की जाती है। ऐसा ही कहते हैं ना ..भूख तो नहीं है...चलो थोड़ा सा खा लूंगा।

मैं समझ नहीं पा रहा था की गाय का बछड़ा स्वाद के लिए वहां आया था या भूख उसे जूठन चाटने को विवश कर रही थी...और.. लाला का रात को देर से पहली रोटी से कोर का धीरे से टूटना, फिर दूसरी रोटी का जल्दी आ जाना, और जल्दी खाना...उस की मज़बूरी थी या ज़रूरत......


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