Shanti Prakash

Drama

4.7  

Shanti Prakash

Drama

क्या आप सहमत हैं कि …..

क्या आप सहमत हैं कि …..

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आज भी याद है, बाद में पता चला था, सुलझी नाम था उसका । जैसा नाम वैसा ही उसका व्यक्तित्व था । 3 साल पहले वो मुझे समुद्र किनारे कोवलम बीच पर मिली थी । मुझ से टाइम पूछा था उसने ।

समुद्र की लहरों के पास चलते चलते उसके हाथ में बंधी घड़ी पानी में भीग गई थी और उस की सुइयां रुक गई थी । उसे पता था, घड़ी की सुइयां वहां रुकने से वक्त नहीं रुकता । मोबाइल उसके पास उस समय नहीं था, किनारे पर अपने बैग में रखकर वह समुद्र की लहरों से खेल रही थी । मैंने कहा "अभी 4:30 ही बजे हैं…"

यह सुन वो बोली

"चलो अभी तो काफी समय है…"

मैंने पूछा….

"आपने कुछ कहा"

" नहीं… नहीं,"

मैंने कुछ नहीं कहा ।

वो अकेली, मंद मंद कदमों से पानी की लहरों पर कभी अपने पैर मारती तो कभी पानी की लहरें उसके पैरों को मारती, और जब लहरें वापिस समुद्र में जाति तो पीछे छोड़ जाती उसके पैरों के निशान । मुझे नहीं पता था कि, उस वक्त मैं उसे देख रहा था या उसके पैरों के निशान, बस इतना सा पता था की इन रास्तों पर हवाओं की महक़ बतला रही थी, अभी अभी वो इधर से गुज़रें हैं ।समुद्र किनारे किसी बीच पर या किसी नदी के किनारे जब अगर आप कभी गए हों, या जाएँ और अपने पाँव कुछ देर भी पानी में रखें और जैसे ही बाहर निकालो तो लगता है खूब अच्छे से पेडीक्योर हुआ है । पाँव बहुत मुलायम और साफ हो जाते हैं । मैं सोचने लगा ऐसा कैसे होता है ? ठीक से तो याद नहीं, कहाँ पढ़ा था कि, ईसा से कई हज़ार साल पहले दुनिया में लोग रेत की मदद से घर और इमारतें बनाते थे । रेत पानी, हवा और चट्टानों के टकराने से बनती है । चट्टानें चूर-चूर होकर रेत में बदल जाती हैं। कभी कभी, कहीं कहीं कुछ हिस्सा कांच के बारीक कणो में भी बिखर जाता है। इसलिए शायद पानी में बारीक रेत के कण जिसमें चमकीले से मुलायम शायद गोल ही होंगे कांच के वो कण भी, जो पैर पर रगड़ने पर भी घाव-ज़ख्म नहीं बनाते । एक पल सोच के देखिये अगर कांच चुभ जाए तो खून निकल आता है और वही कांच अगर गोलाई में हो जाए तो.... । याद है बचपन में बँटे खेलते थे । उंगलियों से एक बँटे का दूसरे बँटे पर निशाना लगा कर बँटे जीतने का खेल खेला करते थे । कांच के बँटे रंगीन और गोल होते थे । पर वो कभी ना उँगलियों में ना पैरों में चुभे । पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कभी कभी- कोई कोई शब्द बहुत गहरे से चुभन दे जाते हैं शायद वह नुकीले होते हैं..ज़ख्म दे जातें हैं जिन्हे वक़्त भर तो देता है पर यादों में निशान तो रह ही जाते हैं । काश वो शब्द भी रेत में कांच कणो जैसे मुलायम हो सकते .पिछले शनिवार की तरह इस बार भी मैं तकरीबन 4:00 बजे कोल्लम बीच पर बैठा समुद्री लहरों से उत्पन्न तरंगों में मस्त था कि तभी मुझे एक आवाज ने चौका दिया...

" हाय कैसे हैं.. यू रिमेंबर.. वी मेट लास्ट सैटरडे... आई आस्क्ड यू अबाउट..टाइम ...। आप कैसे हैं ...आप को याद है हम पिछले शनिवार मिले थे, मैंने आप से टाइम पूछा था.."

यह सुन पीठ पीछे हाथ मारकर रेत झाड़ते हुए मैं उठा ...

".हेल्लो ... हाँ .. याद आया.. हम गुज़रे शनिवार भी यहीं मिले थे"

इतने में वो बोली मुझे

" सुलझी कहते हैं... आप.."

"मुझे...येती, येतेंदेर कहते हैं..."

इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता, मैं और सुलझी दोनों पानी की लहरों को छूते हुए धीरे-धीरे साथ साथ चलने लगे । चलते चलते पता नहीं कैसे मेरा हाथ सुलझी के कंधे पर रुका और मैं फिसल कर गिरने से बच गया । मैंने अपने को संभालते हुए सॉरी कहा ....

सुलझी के मुंह से बस इतना निकला

"टेक केयर, संभलकर...क्या करते हैं आप.."

मैं इंजीनियर हूँ यहाँ एक कंपनी में काम करता हूँ .. आप"

" मैं एमबीए हूँ …यही एक कंपनी में मैनेजर के रूप में कार्यरत हूँ और किराये पर रहती हूँ । कभी कभी ऐसे ही अपने एहसासों को शब्द देकर अपने लिए कविता -कहानी भी लिखती हूँ ।"

"कहाँ पब्लिश कराती हैं "

"कही नहीं.."

मेने कहा….

"कभी हमें भी पढ़ने का मौका दीजिये, मैं यहाँ पीजी में रहता हूँ ....ओके आई सी। "

मेरा और सुलझी का मिलने का सिलसिला कई महीने तक यूँ ही चलता रहा । एक दिन मैंने हिम्मत कर पूछ लिया

" आप शादीशुदा हैं क्या..? आर यू मैरिड..?"

सुलझी का सीधा सा जवाब था,….

" थी,….अब तलाक हो चुका है । एक बच्चा है मेरे पास... 2 साल का । "

मैंने कहा

" सॉरी.. आप को परेशान किया ।"

"आप क्यों सॉरी बोल रहे हो.. ज़िंदगी में सब चलता है। ज़िंदगी का हर पल नया होता है.. ऐसा सुना है, कुछ पल आप कैसे जियेंगे.. नसीब में लिखा होता है, और कुछ आप और हम खुद बीते हुए पल में लिखते हैं, जिसे अगले पल में हम जीते हैं । क्या आप इस बात से सहमत हैं...?"

पता नहीं क्यों, हालांकि मैं सुलझी के घाव कुरेदना नहीं चाहता था, फिर भी पूछ बैठा

"कोई खास वजह थी जो बात तलाक तक जा पहुंची । "

सुलझी ने मेरी और देखा और बोली,

" I am sure you are not yet married, is it so? मुझे विश्वास है आप अभी शादीशुदा नहीं हैं, क्या यह ठीक है ? नहीं तो, आप यह नहीं पूछते । आपको क्या लगता है, बिना वज़ह भी तलाक हो जाता है । वज़ह खास ही होती है तभी बात तलाक तक जाती है ।"

"मैं भी तो वही पूछ रहा हूँ ...क्या वज़ह थी.... ।"

"हाँ थी वजह.... गलती और गलतफ़हमी..। बहुत सारे इश्यूज पर, हमारा अक्सर अरगुमेंट हो जाता था । मैं चाहती थी कोई भी बात है, आपस में डिस्कस करके हल निकाल लें । वो तो बस अपनी बात पर अड़ जाते थे । सुलझी, आवेश में बोलती जा रही थी…., आपने सुना होगा वहम, झूठे शक का कोई इलाज नहीं होता । किसी के साथ बात करते देख लो, किसी के साथ बैठे देख लो, बस उनके दिमाग में एक ही बात आती थी, और व्ही पुरानी सोच से त्यार एक रबर स्टैम्प, मेरे व्यक्तित्व पर लगा देते, जो भी हो , मेरा यार है । अब आप बैठे हो.. आप मेरे यार हो गए क्या ? और यह कहते कहते सुलझी रुक गई....।"

मुझे ऐसा लगा जैसे, यह सवाल तो सुलझी के मन में भी कहीं तो ज़रूर आया होगा तभी तो यह बोला.... ! सुलझी के दोनों हाथों में एक एक कांच का कंगन था, जिसके ऊपर शायद प्लास्टिक के मोतियों की माला थी । मेरे से बात करते करते, कंगन पर उसकी उंगलियां चलती रहीं और इसी बीच में वो प्लास्टिक के मोती की माला कंगन से निकल गई । और जब उसका ध्यान मेरे चेहरे पर गया तो लगा कि वो जान गई है की मैं उस कंगन की माला को देख रहा हूँ और तभी वो कोशिश कर कंगन में माला लगाने लगी पर वो नहीं लग पा रही थी । इसी बीच मैंने संकोच से उसका कंगन पकड़ा और मोती की माला कंगन में चढ़ा दी। मैं उठ खड़ा हुआ अपना दायाँ हाथ, मैंने उसकी तरफ बढ़ाया, यह दोस्ती का हाथ है,.. सुलझी बोली पकड़ लूं क्या...!

मैंने कहा, हाँ यह तुम्हारे लिए ही है..

वक्त के साथ साथ दोस्ती भी गहरी होती गई । हम दोनों ने शेयरिंग बेसिस पर एक 2 कमरे का सेट किराये पर ले लिया । सुलझी ने अपने बच्चे रितेश का नर्सरी कक्षा में दाखिला करा दिया ।

पल पल कर हम दोनों दोस्तों में जिंदगी बढ़िया से गुजरने लगी । रितेश अब मेरे साथ भी घुलमिल गया था ।आज उसका तीसरी कक्षा का रिजल्ट आना था । काम वाली बाई जो सुबह शाम खाना बनाती है , उसने भी अपने बच्चो के स्कूल जाना था इस लिए छुटी पर थी । मुझे शुरू से ही खाना बनाने का बहुत शौक था । मैंने सोचा, चलिए आज किचन में कड़ाई पनीर बनाते हैं ।मैं प्याज़ काट रहा था कि अचानक रितेश के रोने की आवाज सुन घबराहट में मेरी ऊँगली पर चाकू लग गया और हल्के से आवाज निकल गई..उई-माँ । इस के बाद जो हूआ वो मेरी कल्पना में मेरी चाहत तो थी ,पर कभी वैसा होगा इस का यकीन नहीं था और सोचा भी नहीं था ।

इतने में देखा सुलझी भागी भागी भागी आई और..मेरी कटी उंगली उसके मुँह में थी ।

"क्या कर लिया तुमने... क्यों आए...किचन में, निकलो.. यहाँ से... किचन से बाहर निकलो।"

"जाओ प्लीज स्कूल चले जाओ, बच्चे का रिजल्ट आना है । मैं खाना बना कर पैक कर लूंगी ।"

बैसाखी का दिन था, रितेश का रिजल्ट आना था । मैंने कुछ पल पहले अपनी जिंदगी के कुछ नए स्पर्श किए और जीये थे । हिम्मत कर मैंने सुलझी से बातों बातों में पूछा एक बात बताओ-

" डिस्कशन और अरगुमेंट में क्या फर्क है । डिस्कशन में भी तो अरगुमेंट होती है ।"

सुलझी बोली इतने साल हो गए हमें साथ-साथ रहते, मुझे नहीं लगता अब यह फर्क समझने की जरूरत है, फिर भी कहते हो तो बतला रही हूँ । डिस्कशन में किसी इशू पर अलग अलग विचार हो सकते हैं और एक लॉजिकल कन्क्लूसिओं, तार्किक निष्कर्ष, पर पहुंचा जा सकता हैं । जबकि आर्गुमेंट में एक पूर्व निर्धारित फैसला मनवाने की कोशिश और उसके ही ठीक होने का जस्टिफिकेशन दिया जाता है, जो ज़रूरी नहीं की logically - तार्किक रूप से भी ठीक हो I"

मैं बहुत गंभीरता से सुलझी के व्यक्तित्व को समझने कि कोशिश कर रहा था और लगा कि ज़िंदगी जब धरातल पर जी जाती है तो इंसान को कितना परिपक्क बना देती हैं I इसी सोच में रितेश को साथ लेकर मैं उसके स्कूल पहली बार रिजल्ट लेने के लिए चल दिया था I

रिपोर्ट कार्ड देखते ही में हैरान था क्योंकि गार्डियन / अभिभावक की जगह मेरा नाम लिखा था ।

मैं बहुत स्तब्ध सा खड़ा सुलझी के होंठों के स्पर्श को जी रहा था और रितेश को गोदी में उठा अपने 2-कमरे वाले घर कि और चल दिया था जहाँ रितेश कि मम्मी इंतज़ार कर रही थी


( क्या आप सहमत हैं कि कुछ पल आप कैसे जियेंगे.. नसीब में लिखा होता है, और कुछ आप और हम खुद बीते हुए पल में लिखते हैं, जिसे अगले पल में हम जीते हैं और ज़िंदगी, जब धरातल पर जी जाती है तो इंसान को परिपक्क बना देती हैं.. यदि आप का जवाब हाँ है और अच्छा लगे तो, अपनी सहमति दीजिये )






















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