Shanti Prakash

Drama Tragedy

5.0  

Shanti Prakash

Drama Tragedy

क्या मैं इंतजार करूं .....

क्या मैं इंतजार करूं .....

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गुज़रे साल की बात है जब मैं 25 का था । उस रात पूर्णिमा की चाँदनी रात थी । रात्रि के शांत वातावरण को गाड़ी की विसल भेदती जा रही थी । मैं भी उस रात भटक रहा था.. रास्ते की खोज में, सुख की खोज में । गाड़ी की विसल से लगा शायद उधर कोई रास्ता है । मैं चल रहा था पर उस वातावरण में मेरी खामोशी इतनी तीव्र थी कि, सुनी जा रही थी । मैं जैसे अपने से ही कह रहा था , सुख चाहिए खुशी चाहिए । क्या करूं, पैसा कैसे कमाऊं । इसी सोच में चलते चलते तीव्र खुशबू से लगा पास ही कहीं रात की रानी के फूल है, जो किसी के केशों में लग कर, जहां एक तरफ सोन्दर्ये का रस तो प्रदान करते हैं, पर रस के भूख की प्यास भी उतनी ही तेज कर जाते हैं । उस वातावरण में मेरे पर भी एक नशा छाता जा रहा था । वहाँ मधुर झंकार की एक आवाज़ थी, जो कह रही थी…. उस तरफ मत बढ़ो । वहां भटकाव है । वहाँ कुछ नहीं है । असंतोष ही है वहाँ । यह एक चौराहा था ।पता नहीं क्यों, मैं चल पड़ा था, बहुत दूर तक चला आया था । फिर एक धुन मैं चलता हूं उस तरफ, यह तो एक शहर था जो कसा- भरा हुआ था ऊंची ऊंची मीनारों से । मैंने देखा ज़मीन से बहुत ऊंचाई पर एक कोने में बल्ब की रौशनी से जगमगाता कमरा, शयद किसी का घर हो । वहीँ पास से एक आवाज़ सुनाई दी… ,

कोई कह रहा था, आप भी कहां भटक रहे हैं... I

पूरा वातावरण मेरे लिए बहुत आश्चर्यचकित करने वाला था । मेने सोचा चलो देखा जायेगा, यहां ही अपना स्वर्ग बनाते हैं । मैं फिर हंसा था ....हां शायद अपने ऊपर ही हंसा था।

मैं और वो पास में ही खड़े थे ।

वह कहती जा रही थी वहां भी कुछ नहीं मिला । कोई रास्ता नहीं वहां से आगे ।

मैंने बड़ी विनम्रता से पूछा ... आप आस पास ही रहती है क्या ? आप को कैसे पता आगे, कोई रास्ता नहीं वहां ?वह कहती जा रही थी... बहुत साल पहले जब मैं, 16 की थी, मेरा मन चाँदनी रात में शीतल हवा के झोंकों से किसी विरह के गीत की धुन में रीत जाने को व्याकुल रहता । मैं छत पर सोई सी, तारों की जिंदगी के पल- पलकें झपक के गिना करती थी । फिर कभी पास ही के लहलहाते खेत से सायें-सायें करती पवन, पायल की झंकार की कहानी भी कह जाती, तो मैं सिहर उठती थी । निगोड़ी कहीं कि, तू भी किसी की साज़ का गीत बनेगी । लज्जा जाती थी, मैं, चाँदनी रात की मीठी रौशनी में । फिर एक दिन मुझे लगा मेरे खुले केशो में कोई वायलिन के स्वर भरता जाता है । मेरे होठों के विशेष अंदाज से खुलने पर एक लेह सी मन में गुजर जाती और मस्तिष्क में उभरती, मेरे उनकी छवि, आँचल से सर ढक कर, बस कुछ पूछो ना... मैं तो झुकी ही जाती थी उनके चरणों में ।….

मैं विरह की आग में जलती उस सांझ भी नहाने के लिए पानी लेने को गई थी, पर बेध्यानी में फिसल गई थी, फिसलन से, मन डूबा जो था ... बेईमान उनकी धुन में.. न जाने ऐसे खो गया हो, जैसे सुंदरी दर्पण के सामने ईशा करने लगे अपने ही प्रतिबिम्ब से ।

बाबू ने, मैंने बाद में देखा था.... आज भी याद है एक धुएं का छल्ला जो जलाया था । फड़फड़ा कर मधुमक्खियां उड़ गयीं थी । फिर वो शहद लेकर आया था, जिसे मैंने भी खाया था । याद आती है मुझे आज भी वह रात जब मैं बावरी.. तड़पी थी पहली बार.. घुंघट के अभाव में । और… मैं फिर तड़पी थी, बढ़ा रोई थी, खुशी के साथ उसके सीने से चिपक के जब पहली बार उसने अपनी लिखी कविता सुनाई थी

घुटी घुटी सी आहें तुम्हारीं, घुटा घुटा सा मन

कहती हैं आँखें हमसे... पीड़ा तुम्हारी मन.....आओ चले आओ बाँहों के घेरे में

दिल से लगा के कुछ पल जी ले हम

कुछ पल जी ले हम

वो रात नागिन की तरह फैलती ही जाती थी । बारिश भी उस रात, उस वक्त खूब हुई थी ।आज भी याद आता है, मेरी पायल के बजने से, मुझे लगा था कोई गीत है, कोई झंकार है, कोई मंत्र है, जो प्रेम प्यासी को बांध जाता है फिर से कई गुना शक्ति से अपने प्रियतम की बाहों के घेरे में । उस रात चाँद तारों की रोशनी भी या तो शर्मा गई थी, या जानबूझकर अदृश्य हो बैठी थी... मुझे वापस ना भेजने की चाल में । मैं फिर उस घर नहीं गई थी,.. नहीं गई थी ।

जब मैं अठारह की थी । उस रात हमने वह गांव छोड़ दिया था । मैं अपने उनके साथ चली आई थी इस शहर में । फिर एक दिन वो बोले थे.. मैं घर जाता हूं, रुपए लेने, फिर एक घर लेंगे.... । तुम्हारे लिए,... तुम्हारे लिए, मैं साड़ी लाऊंगा, बस दो ही दिन की तो बात है । तुम घबराओ मत । मेरी मौसी के पास रहो, बस मैं यूं गया और यू आया । मैं मौसी के पास छोड़ दी गई थी । उस रात भी मैं बहुत रोई थी ।

तीसरे दिन मौसी आई थी.... साड़ी लेकर और बोली थी लो.... आज तुम्हारा जन्म दिन है..बाई ! कपड़े बदल लो... आज रात तुम्हें मुबारक हो ! और फिर मैं तो बड़ी मस्त थी । मुझे उनकी याद.. हां... हां ..मेरे वह आएंगे आज रात को इतनी दूर से ।

कितनी देर तक सोई थी। अगली सुबह सखिया पूछती रही थी... मेरी उस रात के बारे में । मैंने कहा था मेरे वह तो मेरे सब कुछ हैं । बड़ी हँसी थी वो सब । वो रोज रोज आते थे । कभी वह मेरे नशे में इतने धुत होते थे.... काट खाते थे.. मेरे उस बांसुरी वाले होठों को । मैं बस मैं उनके सीने से लिपटकर गाती थी आयो .. चले आओ तुम, कुछ पल जी ले हम ।

फिर धीरे-धीरे उन्होंने रात को आना भी बंद कर दिया । मैं मौसी से रोज पूछती थी, वह नहीं आये क्या ? मेरे रोज-रोज पूछने पर एक दिन मौसी बोली लगता है , वह तो नाराज है । जा तू उसे मना ला । वो आजकल वहां रहता है बाजार में । मैं बाजार में से जा जा रही थी अपने बाबू को ढूँढ़ने, तभी उन्हें दूर से देखते ही मेरी ज़ोर सी आवाज़ निकल गई ...बाबू ...रुकोना ..... बाबू । तुम मुझ से क्यों नाराज हो..इतने में आवाज़ सुनाई दी ..... ग्राहक ढूंढ रही है ।मुझे बड़ी देर के बाद वो दिखे थे । मैं जोर -जोर से उनसे कह रही थी, बाबू ओ बाबू, सुनाओ ना..... कहता है कोई हमसे आओ चले आओ तुम । मैंने देखा था उनकी ऑंखों को..... । मैं तो फिर मस्त हो चली थी… पर देखा आप, आप और आप सब लोग खड़े देख रहें हैं । कोई कहता जा रहा था पागल हो गई है । कोई कहता जा रहा था ……है । कोई कहता जा रहा था..... है ।

मैं चिल्लाई की इस बार तो कुछ बोलो मेरे बाबू, .. मुझे पहचान दो । मैंने तब भी कहा था नहीं… नहीं बाबू हम तो रोज तुम्हे ही देखते थे । आज मैं 25 की हो गई बाबू ।

मैंने पूछा इतना सब कैसे हो गया ? कैसे जिये इतने साल तुमने ......?

वह बोली, उस रात पूर्णिमा की चाँदनी रात थी । मैं बैठी थी मन की उल्झेने बुद्धिमता से सुलझाने को । मैंने चाहा था उन्हीं तक पहुंचना । सुख पाने को । हम मिले भी थे.... दोनों बड़े व्याकुल थे उस रात भी । फिर वह 1 दिन चले गए थे । मैं उस समय से ही अब तक उन्हें खोजती आ रही हूँ । अपने आप को भी ढूंढने की कोशिश कर रही हूँ मैं । मैं गई थी वहां भी, पर वह नहीं मिले । आगे जाने का कोई रास्ता नहीं मिला । वापस लौट आई थी मैं, अमावस्या की रात में फिर यहां ।

मुझे आज भी याद है, मैंने बहुत पैनी नजरों से देखा था उसे ।

मैं जाऊंगा वहां जरूर । सुना तुमने..... ! मैं ढूँढ के लाऊँगां उसे तुम्हारे पास ।

यह सुन… वो बोली थी… मैंने सुने हैं प्रेम के संगीत और देखा है सपनों को चाहते बनना फिर उनका टूटना और बिखरना इसलिए मैं डर गई हूँ शब्दों और धुनों से और बुनती हूँ एक सन्नाटा इन खामोश हवाओं पर जो शायद, तुम सुन सको।

वो बोली थी... क्या मैं अब… तुम्हारा यहाँ इंतजार करूं .....।

उसका बड्डपन था की मेरी ख़ामोशी ….. समझ ली थी । मेरे पास कोई जवाब नहीं था । बिना आँख मिलाये मैं आगे चलने लगा । मैं अब क्या करूं…।

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