मित्रता
मित्रता
रमाकांत को जल्दी तैयार होता देख पत्नी ने पूछा।
"आज फिर पेशी है?"
" नहीं। ''
पाँच साल हो चुके कोर्ट कचहरी के चक्कर लगाते, अभी तक फैसला नहीं हो पाया है। दूसरे वकील का पता चला है। वो जल्दी केस जितवा देता है। तो आज उसी से मिलने शहर जा रहा हूँ।
शहर आकर रमाकांत जब वकील के यहाँ पहुँचा तो बहुत भीड़ थी। अंदर से घंटी बजती तब चपरासी दूसरे को अंदर जाने देता। बेंच पर बैठे- बैठे काफी देर हो गयी तब जाकर उसका नंबर आया। वकील और रमाकांत दोनों एक दूसरे को देखते ही पहचान गये। दोनों एक ही स्कूल, क्या एक ही क्लास में साथ पढ़े थे। लेकिन जहाँ रमाकांत पढ़ने में होशियार था वहीं सूरज को हमेशा सप्लीमेंट्री आती थी। उसका रोल नंबर हमेशा रमाकांत के पीछे या पास होता था और रमाकांत परीक्षा में उसकी मदद कर देता था। कईयों को आश्चर्य होता कि ये कैसे दोस्त हैं।
मैंने तो सुना था कि तू गाँव चला गया। ऐसा क्या हुआ था जो पढ़ाई छोड़ जाना पड़ा ? सूरज ने पूछा।
मेरी माँ को लकवा लग गया तो पिताजी का काम छूट गया। एक समय ऐसा आया कि दवाई कराने के पैसे नहीं थे। वहाँ खेत था कम से कम दोनों वक़्त पेट तो भरेगा यही सोच पिताजी सबको गाँव ले गये।
दादा जी अपने तीनों बेटों के नाम ज़मीन बाँट गये थे। मेरे दोनों चाचा को अपने भाई का गाँव आना अखर रहा था। जो खेत पिताजी को मिलना था वो दोनों चाचा मिलकर हथिया लेना चाहते थे और दूसरा बंजर खेत मेरे पिताजी को दे रहे थे। जब उन लोगों पर सब की समझाइश का असर नहीं पड़ा तो पिताजी ने केस कर दिया। कानूनी लड़ाई लड़ते-लड़ते वह भी गुज़र गये। अब यह लड़ाई मेरी है। मेरा बेटा बड़ा हो रहा है वह आगे पढ़ना चाहता है। मैं अपने जैसा हश्र अपने बेटे का नहीं होने देना चाहता। कहते हुये रमाकांत की आवाज़ रुंध गयी।
आज मैं जो कुछ भी हूँ वो तेरे कारण हूँ रमाकांत। तुम यह केस जल्दी ही जीतोगे और अपने बेटे को उच्च शिक्षा ज़रूर दिलवाओगे। यह तेरे दोस्त का वायदा है कह सूरज ने रमाकांत का हाथ अपने हाथों में ले लिया। रमाकांत की आँखें भर आयीं।