समंदर में एक शाम
समंदर में एक शाम
ये बात अप्रैल और मई १९७९ के महीनों की है। उन दिनों मैं “ननकोरी” नाम के यात्री जहाज पर जूनियर इंजिनियर था, जब जहाज बंदरगाह पर बंधा होता था तो मेरी वाच दिन में सुबह ६ बजे से शाम ६ बजे तक होती थी और समुद्र में सेलिंग के वक़्त मेरी वाच सुबह ४ से ८ और शाम ४ से ८ होती थी। पूरा अप्रैल माह सिंगापुर के सम्भावंग शिपयार्ड में निकला था। वहाँ हमारा जहाज वार्षिक मरम्मत के लिये गया था। सिंगापुर के किसी भी शिपयार्ड में मरम्मत के लिये एक महीने का समय मिलना, जहाज के सभी कर्मचारियों के लिए ख़ुशी की बात थी। मरम्मत के वक़्त काम का भार तो बहुत बढ़ जाता था लेकिन साथ ही थोडा बहुत घूमना फिरना, नयी नयी जगह देखना, और सबसे बड़ा आकर्षण था खरीददारी। सभी लोगों ने जमकर खरीददारी की थी, मैंने भी सबके लिए कुछ-कुछ खरीदा था।
सम्भावंग शिपयार्ड से निकलकर सिंगापुर की एंकरेज पर जहाज १ मई १९७९ की दोपहर में ही आ गया था, लेकिन अभी भी कुछ काम चल रहे थे। शिपयार्ड के लोग जहाज पर ही थे, कुछ मशीनों की ट्रायल होनी थी, कुछ सर्वे बची हुई थी और कुछ छोटे मोटे लीक वगैरह ठीक होने थे और हाँ, अभी जहाज का इंधन यानि बंकर और खाने पीने का सामान भी तो आना था। इन सभी कामों के लिए जहाज को २४ घंटे और रुकना पड़ा और फिर ...
दिनांक २ मई १९७९ की शाम ४ बजे जहाज का लंगर उठा और जहाज चेन्नई के लिए चल पड़ा। मैं अपनी ४ से ८ की वाच ख़त्म कर और अगले वाचकीपर को सब सम्भ्लाकर करीब साढ़े ८ बजे ऊपर आया। हाथ मुँह धोकर अपने फ्रिज से ठंडी बियर निकाली और केबिन के बाहर डेक पर जाकर बैठ गया। ये सब जैसे मेरी दिनचर्या का एक हिस्सा बन गया था। अपनी वाच ख़त्म कर जब ऊपर आता तो थोड़ी देर बाहर जरूर बैठता था। जहाज के दोनों तरफ ८ - ८ लाइफ बोट लटकी हुई थी, इन्हीं में से एक बोट के नीचे बाँस की एक कुर्सी रखी हुई थी। काम के बाद सुस्ताने का मेरा यही ठिकाना था। वैसे भी ‘ननकोरी’ एक स्टीम टरबाइन वाला जहाज था और इंजन रूम का तापमान ५१ - ५२ डिग्री सेंटीग्रेड पहुँच जाता था इसीलिए शरीर को थोडा ठंडा करना जरूरी सा हो जाता था।
जहाज १२ नोट प्रति घन्टे की रफ़्तार से चेन्नई की ओर चले जा रहा था। सिंगापुर की गगनचुम्बी इमारतें और चकाचौंध कर देने वाली रोशनी अब धूमिल पड़ने लगी थी। मलाका स्ट्रेट से गुजरते दूसरे जहाजों की रौशनी साफ़ नज़र आ रही थी। समुद्र अब उतना शांत नहीं था। थोड़ी हलकी रोलिंग और पिचिंग शुरू हो गई थी। मैं बैठा २ सुस्ता रहा था और छुट्टी पर अपने घर जाने के बारे में सोच रहा था। चेन्नई पहुँचकर मैं साइन ऑफ जो करने वाला था। इसी सबके बीच ना जाने कहाँ से शीतल का चेहरा सामने आ गया और उसके हालात मेरी आँखों के सामने घूमने लगे, क्या ज़िन्दगी का सच इतना कड़वा होता है ?
मरम्मत के वक़्त शिपयार्ड की तरफ से ज्यादातर काम करने वाले लोग मर्द थे लेकिन इंजन रूम की साफ़ सफाई का काम करने के लिए महिलाएँ आती थी। इनमें अधिकतर ४५-५० साल से ऊपर की होती थी। इनको ज्यादा मेहनत का काम नहीं दिया जाता था। इन्हीं ८-१० महिलाओं में एक भारतीय भी थी। करीब ५४-५५ साल की रही होगी। इसका बाकी और महिलाओं से ज्यादा मेलजोल नहीं था क्योंकि बाकी सभी चीनी मूल की थी। शीतल बहुत शांत और अपने काम से काम रखती थी। भारतीय होने के नाते उसके साथ मेरी सहानभूति रहती थी, शीतल भी कभी २ मुझसे दो बात कर अपना मन हल्का कर लिया करती थी।
एक दिन उसने बताया था कि वो विधवा थी और अकेली रहती थी। शिपयार्ड में काम कर मुश्किल से अपना खर्चा चला रही थी। होने को उसको एक बेटा था जिसकी शादी हो चुकी थी, वो अपनी पत्नी के साथ अलग घर में रहता था। पिछले ५-६ साल से उसके साथ कोई सम्पर्क नहीं था। वो इसी शिपयार्ड में किसी ऊँचे ओहदे पर कार्यरत था। शीतल के खान पान को देखकर मैं समझ सकता था, वो किन हालात से गुजर रही थी। जब भी मुमकिन होता था, मैं अपनी मेस से कुछ खाना, कभी सब्जी या फिर अचार उसको दे दिया करता था। वैसे उसने मुझसे कभी कुछ नहीं माँगा।जहाज की मरम्मत का काम ख़त्म होने को था। एक दिन शिप मैनेजर के साथ शिपयार्ड का वर्क्स मैनेजर भी सभी कामों का जायजा लेने आया। उस वक़्त इंजन रूम में, मैं ही अकेला इंजिनियर था। मैं शिप मैनेजर और वर्क्स मैनेजर की बातें सुन रहा था। वर्क्स मैनेजर कुछ-कुछ समझा रहा था और बहुत जल्दी में था, जब वो अपना राउंड पूरा कर ऊपर जा रहा था, सफाई करती शीतल मेरे पास आई और बोली, साहब आप जानते हो वो कौन है, मैंने कहा नहीं तो, वो ही तो मेरा बेटा है। कहते हुए उसकी आँखों में आँसू आ गए, शायद उन आँसुओं में उसका गर्व और उसका दर्द दोनों ही छिपे हुए थे।