Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

Rupa Bhattacharya

Inspirational

3.2  

Rupa Bhattacharya

Inspirational

फिर तेरी कहानी याद आई

फिर तेरी कहानी याद आई

9 mins
961


आज घर में शहनाई की मधुर आवाज गूँज रही थी। घर रंग बिरंगे बल्बों की रौशनी से नहाया हुआ था। पूरे घर में धुप बत्ती, इत्र, बेली, चमेली, रजनीगंधा, की खुशबू मृग के 'कस्तुरी' का अहसास करा रही थी।

पिताजी बिस्तर पर बैठे-बैठे ही निर्देशों का बौछार किए जा रहे थे। माँ झुकी हुई कमर के साथ इधर- उधर एक बच्चे की तरह फूदकती फिर रही थी।

मेरे हाथों में मेहंदी लगाये जा रहे थे। हे प्रभु, बहुत दिनों के बाद हमें यह खुशी नसीब हुई है, इसे बनाये रखना !

मेरी आँखों से आँसू छलकने चाहें जिसे मैंने रोक लिया, क्योंकि मुस्कराते हुए सासु माँ ने कमरे में प्रवेश किया था। मेरे माथे को चुमती हुई उन्होंने शगुन की थाली मुझे पकड़ाया। शगुन के उस लाल बनारसी साड़ी को देखकर मैं हैरान रह गई थी।

ये तो हुबहू वैसा ही साड़ी है,जो माॅल के बाहर मैं चमचमाती हुई देखा करती और अक्सर "रबिश " को कहा करती "मैं शादी में इसी प्रकार की साड़ी पहनूँगी।"

मैं इस गहमा-गहमी में उनसे कुछ पूछ न पाई ! और मेरे मानस पटल पर एक- एक सभी पुरानी बातें उभरती चली गई ।

हम दो बहनें "सौभाग्यवती"और मैं "सलोनी"। नाम के अनुरूप हम दोनों परिवार के लिए एक सुंदर सलोना सा सौभाग्य थे। हमने अपने माता- पिता को कभी बेटे के लिए तड़पते नहीं देखा। दीदी अत्यंत कुशाग्र बुद्धि की थी। वह पढ़ती चली गई और विभिन्न परीक्षा पास करती हुई एक अच्छे पद पर काबिज़ हो गई। हमारे पिताजी विश्व विद्यालय में रीडर थे। हमारा परिवार पूरी तरह से सुखी और संपन्न परिवार था।

हमारे परिवार में तूफान की प्रविष्टी तब हुई जब दीदी की शादी की बात चलने लगी। दीदी ने शादी से इंकार कर दिया। एक रात दीदी ने बताया कि वह अपने ही कंपनी के कर्मचारी "रिषभ"से प्रेम करती है।

मैंने दीदी से कहा था, तो माँ- पापा को बता क्यों नहीं देती ?? क्या बताऊ ? वह नहीं मानेगे ! कहाँ वह छोटा सा कर्मचारी ! और कहाँ हमारा परिवार !

दीदी सच ही तो है ! तुम सर्वगुण संपन्न हो, हमारे परिवार की समाज में एक प्रतिष्ठा है, उसे धुमिल न करो !

दीदी बिदक गई थी, जोर से मुझे डाँटते हुए कहा था-"अपनी औकात में रह ! अभी पढ़ाई पूरी कर, ताकि अपने पैरों पर खड़ी हो सके।"

आज मेरे पास खुद का पैसा है, मैं पापा के अधीन नहीं हूँ ! इतने दिनों तक उनके अंडर में रही, अब वे चाहते है कि ससुराल जाकर एक अजनबी लड़के, सो काल्ड एक पतिदेव के अंडर में रहूँ ?? मेरा कुछ वजूद ही न रहें??

दीदी ऽ ऽ ऽ तुम ये क्या कह रही हो ? पापा के बारे ऐसी बातें ! जिन्होंने हमें बेटों से कभी कम न समझा, हमें जीवन में आगे बढ़ने की पूरी आज़ादी दी। तुमने अपना मनपसंद कैरियर चुना, जबकि मुझे याद है, पापा तुम्हें डाक्टर बनाना चाहते थे। तुम्हारी खुशी को उन्होंने अपना खुशी समझा !

छोटी ! अब चुप रहो, तुम अभी नादान हो, जब खुद कमाएगी तब समझेगी !

मैं अवाक होकर दीदी को देखते रह गई थी।

कुछ महीने और बीत गए। एक दिन सुबह- सुबह घर में हंगामा मच गया। माँ जोर जोर से रो रही थी, पापा गुस्से से दीदी पर चिल्ला रहे थे।

दीदी तेज आवाज़ में कह रही थी," मैं रिषभ से प्यार करती हूं। क्या हुआ जो वह कम कमाता है? मैं अपना परिवार चलाऊँगी ! मैं उससे 'सच्चा प्यार' करती हूँ और शादी भी उसी से करूँगी" !

पापा ने समझाना चाहा था, बेटी ये सब फिल्मी बातें हैं, सफल विवाह समान सामाजिक हैसियत- ---''

अचानक से दीदी रोती हुई छत पर जाने लगी --

माँ रोती हुई उसके पैर पकड़ती हुई बोली, "कुछ ऐसा- वैसा मत कर ! जो तेरी मर्जी वही कर !

पिताजी का वह निरीह सा तड़पता हुआ चेहरा, माँ की सुजी हुई आँखें देखती हुई मैं चुपचाप एक कोने मे दुबकी हुई रो रही थी।

काश दीदी मान जाती ! मगर दीदी पूरी तरह से प्यार के जोश में गिरफ्तार थी। उसने अपनी मन की सुनी और रिषभ से प्रेम विवाह कर लिया।

माँ बिल्कुल टुट चुकी थी, न बोलना, न हसँना ,न ठीक से खाना- पीना, समय से पहले ही बूढ़ी लगने लगी थी। दीदी फिर लौट के नहीं आई।


मैं अपने को पढ़ाई में व्यस्त रखने की भरसक कोशिश करती। दीदी पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी , कभी फोन भी न करती ! वह शायद अपने जीवन मेंखुश थी। माँ अकेले में रोती रहती। एक दिन अचानक दीदी ने मुझे फोन किया था-" कैसी हो तुम ? दीदी ऽ ऽ मैं रो पड़ी थी--

दीदी ने कहा- वह बहुत खुश है, रिषभ उससे बहुत प्यार करता है । घर का काम काज, साफ-सफाई, दीदी की तिमारदारी सब बखूबी निभाता है। दीदी की तबियत खराब रहने से सारी रात जाग कर उनकी सेवा करता है।

"दीदी- -" फोन कट चुका था।

मैं सोचती जा रही थी- ----''क्या दीदी सही थी? उन्होंने अपने प्यार के लिए हमें छोड़ ठीक किया? पता नहीं ! क्या वह खुश है?

छह महीने बीत गए। एक बार भी दीदी घर न आई। और एक सुबह अचानक ही फोन आया कि दीदी अस्पताल में हैं, बाॅलकनी से गिर गई है !

हमलोग अस्पताल गये, सबकुछ खत्म हो चुका था । पुलिस छान-बीन करती रही, हमलोगों से हजारों प्रश्न पूछे गये। तफ्तीश़ जारी रही कि, वह बाॅलकनी से दुर्घटनावश गिरी थी, या खुद से गिरी थी, या किसी ने धक्का दे दिया था ! हम तो तबाह हो गये थे। पापा ने बिस्तर पकड़ ली। माँ कुछ न बोलती , उनकी ख्वाहिशें खत्म हो चुकी थी। मैं कुछ न कर पाई। समय सबसे बड़ा मरहम होता है। घर में दीदी के बारे अब बातें नहीं होती थी।


चार साल गुजर गए। अब मैं भी अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी थी। मेरी भेंट" रबिश"से पार्क में हुई थी । प्रायः सुबह मैं पार्क जाती थी। वहाँ मैं उसे जागिंग करते हुए देखा करती थी। बहुत ही लंबा-चौड़ा, गोरा- चिट्टा, सजीला, सा युवक था। शुरू- शुरू में हम एक दूसरे को देखा करते और कभी कभार हाय-हेलो हो जाया करती ।

मगर एक दिन दौड़ते हुए मेरे जुतो के नीचे एक पत्थर का टुकड़ा आ गया था! और मैं नीचे गिर पड़ती कि मैंने खुद को दो मजबूत बाहों में पाया था। रबिश ने सहारा देकर मुझे घर तक पहुँचाया था। और फिर धीरे- धीरे बात आगे बढ़ती चली गई । मैं कब उसके प्रेम में गिरफ्तार हो गई , इसका मुझे कुछ होश ही न था। अब मुझे अपने जीवन में चाँद- सितारे नजर आने लगे थे ।

हमने साथ जीने- मरने की कसमें खाई। मैं उसके कंधे पर सर रख कर घंटों गुफ्तगू किया करती और भविष्य के सुनहरे सपने देखा करती। रबिश अपने पिता की पुश्तैनी व्यवसाय संभालता था। दिन गुजरते चले गए ।

एक दिन माँ ने मुझसे कहा, "बेटी एक बात कहूँ ! तेरे पिता की अवस्था तुझ से छुपी नहीं है, वह चाहते हैं कि उन्हें कुछ हो जाये, उसके पहले तेरा कन्या दान कर दे !"

मैं ठगी सी माँ के कांपते हुए चेहरे की ओर देखती रह गई। चाह कर भी मोहम्मद रबिश से प्रेम की बात मैं माँ को बता न पाई। रात भर मुझे नींद न आई। बार-बार दीदी की याद आ रही थी। मैंने भी ठान लिया, मैं पीछे नहीं हटूँगी, आखिर मैंने भी सच्चा प्यार किया है। मैं सुबह माँ को सब बता दूंगी ! फिर चाहे जो परिणाम हो। सुबह मैं रोज की तरह रबिश से मिली, और उससे सीधा सवाल पूछा, "क्या तुम मुझसे सच्चा प्यार करते हो ?"

"ये क्या बहकी- बहकी बातें कर रही हो?" उसने मेरे हाथों में हाथ रखते हुए कहा था।

"अगर ये सच है तो अपना रास्ता अलग कर लो", उसके हाथों को हटाते हुए मैंने कहा था।

"तुमने मेरे भावनाओं को खेल समझा?"

"नही, मैं भावनाओं में बहक गई थी।" "मगर ऽ , मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकता !"

"वे तुम्हें स्वीकार नहीं करेंगे ! इस मामले में वे सही हैं, या गलत ये मैं नहीं सोचूँगी!"

"तुम इतनी कठोर कैसे हो सकती हो ?"

"दीदी के बाद मैं उन्हें दूसरा आघात नहीं दे सकती !"

"सुलो"लगता है, तुम्हें किसी ने बहका दिया है !

"नहीं ऽ ऽ ऽ मैं अपने इरादे में अडिग हूँ। मैंने अपने आपको कठोर रखते हुए कहा था।"

"सुनो, मैं दीदी की तरह सब कुछ छोड़ कर तुम्हारे साथ घर बसा सकती हूँ , फिर मैं भी पीछे मुड़कर नहीं देखूंगी !मगर मेरे साथ मुश्किलें हैं- --''

"मैं माँ के उन झुकी हुई कमर को और झुकने नहीं देना चाहती। आज कल वो अपने तीन- चार गिरे हुए दांतो वाली पोपले मुँह से हसँती हैं ! मैं उस हँसी को भी प्यार करती हूँ ! मैं अपने पिता को बिस्तर पर पड़े-पड़े दम तोड़ते हुए नहीं देख सकती ! अगर हो सके तो मुझे क्षमा कर देना !

मैं दिल से चाहती हूँ, कि तुम उन्नति करों और भविष्य में आगे बढ़ जाओ !"

फिर मैं एक क्षण भी और न गँवा कर घर लौट आई थी ।

घर पहुंच कर अनेक बार हाथ फोन पर रबिश का नंबर मिलाने के लिए आगे बढ़ रहे थे। मगर मैं खुद के सुकून के लिए माँ, पापा को ठोकर न मार सकी।


करीब चार महीने बाद मैंने माँ से कहा कि तुम किसी "समीर "की बातें कह रही थी !

माँ ने खुश होते हुए कहा, जो लड़का तुम्हारे पिताजी के पास पी. एच .डी के लिए थीसिस जमा करने आता है, उसी के बारे कह रही थी ।

मैंने भी नोटिस किया था, उसका मुस्कुराता हुआ चेहरा मुझसे कुछ कहना चाहता है ।

माँ ने फुसफुसाते हुए कहा, " वह तुम्हें पसंद करता है, मगर जब तक तुम हाँ न करो वह बात आगे बढ़ाना नहीं चाहता।"

"ओह अच्छा ! तो देर किस बात की है?" मैंने मुस्कराते हुए कहा था।

"तो क्या मैं हाँ समझूं ?" माँ की आँखों में आँसू थे ।

"अरे माँ ! रो किस बात पे रही हो?" "बेटीऽ ऽऽ मैं भूल चुकी थी , कि ख़ुशियाँ मेरे द्वार पर भी आ सकती है !"

और समीर के साथ मेरी शादी तय हो गई।

काश ! इस समय दीदी भी रहती ! धूमधाम से मेरी शादी संपन्न हो गई।

ससुराल में "बहुभात " के दिन बनारसी साड़ी पहनते हुए मैं फिर से सोच में पड़ गई थी, "हुबहू वैसा ही साड़ी।"

सासू माँ अचानक प्रवेश करते हुए कहा कि "बेटी सुलो ! पार्क में मैं भी टहलने जाती थी ,और अक्सर तुझे उस लड़के के साथ देखती थी। एक दिन मैंने तुझे इस साड़ी के बारे में बातें करते हुए सुना था। और जब मेरे बेटे से तेरा रिश्ता तय हुआ तो मैंने उसी साड़ी को तेरे लिए ख़रीद लिया।"

"माँजी क्या आप लोगों को पहले से सब कुछ पता था?" मैंने अवाक होकर पूछा !

सासू माँ मुस्कराते हुए मेरे सर पर हाथ फेरते हुए चली गई। रात में मैंने समीर से पूछा था , " प्रोफेसर साहब आपने मुझ में क्या देखा कि मुझ पर फिदा हो गये !

समीर ने फिल्मी अंदाज में कहा, "तुम्हारे खुबसुरत चेहरे पर।"

फिर कुछ गंभीर होते हुए कहा, "तुम्हारे इस खुबसुरत दिल पर", खुद की 'खुशी ' से मोहब्बत करना तो सभी जानते हैं, मगर तुम वह" बड़े दिलवाली" हो जो दूसरों की खुशी से मोहब्बत करते हैं।

मैंने मुस्कराते हुए कहा 'दूसरे 'नहीं, 'अपने 'और समीर के सीने से लग गयी।

शादी के तीन साल गुज़र चुके हैं। मेरी एक फूल सी बच्ची है, जिसका सहारा लेकर पापा जी धीरे- धीरे चलते हैं। सासू माँ और मेरी माँ दोनों अच्छी सहेलियाँ बन गयी हैं । मैं अपने परिवार के साथ बहुत खुश हूँ। मगर कभी- कभी दीदी की बात याद कर मन उदास हो जाता है ।


"













































Rate this content
Log in

Similar hindi story from Inspirational