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V. Aaradhyaa

Drama Tragedy Thriller

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V. Aaradhyaa

Drama Tragedy Thriller

कांच की हरी चूड़ियाँ(भाग-2)

कांच की हरी चूड़ियाँ(भाग-2)

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गतांक से आगे...

प्रिय पाठकों,


तुलसी बलराम की यादों में यूँ खो गई मानो कल ही ब्याह कर आई हो।

कैसा दपदप रूप था उसका कि बलराम की आँखें चौंधिया जाती थी।

ज़रा सा समय मिले नहीं कि दौड़कर तुलसी के पास आ जाता था। और फिर देर तक दोनों आपस में प्रेम की बातें करते और समय का पता ही नहीं चलता था।


अपने भाग्य को सराहाती हुई तुलसी पति के बाहु पाश में यूं सिमट जाती जैसे कि लाजवंती हो।

और ना जाने ऐसे ही कितना वक्त गुजर जाता था ।

धूप ज़ब दक्षिणबरिया ओसारे से होकर आँगन तक जा पहुँचती तब सास रुकमणी देवी का पारा गर्म हो जाता और उनका धैर्य भी जवाब दे जाता था।

और वह बाहर दालान से भनसार घर की ओर जाते हुए वहीं से जोर से आवाज लगाती,


" साँझ होने को आई है पर इन दोनों तोता मैना को बतियाने से फुर्सत ही नहीं। मेरे अच्छे खासे कामकाजी बेटे को बिल्कुल मेहरारू बना दिया है। एकदम जोरू के गुलाम की तरह कमरे से बाहर ही नहीं निकल रहा … हरि ओम...हरि ओम...!


अरी ओ बहुरिया! तुझे कोई काम धाम हो ना हो कम से कम मेरे बेटे को तो काम करने दे …। वो कमाए धमाएगा नहीं तो कहां से तेरे खर्चे पूरे करेगा। आज की आज कल की बहुरिया को तोशर्म लिहाज़ का दरस भी नहीं है। घोर कलयुग है कलयुग!"


सास की हुड़की सुनकर तुलसी बड़ी मुश्किल से पति के आलिंगन से निकलती और अपने बाल ठीक कर के कपड़े लत्ता सही जगह पर करती और आँखों में दुबारा काज़ल अरंचकर और चोख लाल रंग की टिकुली लगाकर जो कोठरी से शरमाती डरती हुई निकलती तो उस दिन सास उसे कुछ ज्यादा ही काम थमा देती।


जैसे कि,

"आज जल्दी जल्दी रांधना करके थोड़ा सा धान कूटकर रख देना। कल भिंसारे चिवड़ा का ही जलखई करा देंगे!"

या फिर...

कहती,

"तुम्हारे ससुर को आज खीर खाने का मन है। सो उसके साथ आलूदम और पूरी भी बना लेना। बल्लूआ को पूरी कुछ ज़्यादा ही पसंद हैं!"


सास की डांट का प्रसाद पाकर तुलसी को याद आ जाता कि उसके और बलराम के अलावा भी कोई दुनियां है और कई सारी जिम्मेदारियां हैं।


ऐसे दिनों में रसोई समेटते तुलसी को बहुत रात हो जाती थी। ज़ब तक वह चौका समेटकर आती तब तक बलराम सो जाता था।

पता नहीं सास को अपने बेटे बहू को अलग करके उन्हें सताकर क्या ही मजा आता था।


"और तीज के समय ज़ब सब दर्ज़न भर हरे कांच की चूड़ियाँ पहनती तब उसके संग जोड़ में सतरंगी बाला लगाकर पूरे दो दर्ज़न चूड़ियाँ ले आता बलराम। और उसकी मेहंदी लगी गोरी हथेलियाँ और कलाई में इतनी सारी चूड़ियाँ देखकर खुश होता और कोई ना कोई गीत गुनगुना देता तो तुलसी एकदम लज़ा जाती थी।


गई रात ज़ब कुछ हरी चूड़ियाँ प्यार मुनहार में टूट जातीं तो फिर से कुछ और चूड़ियाँ लाकर मिला देता और दर्ज़न भरकर गिनती पूरा कर देता।


इतना तो प्यार करता था बलराम अपनी लुगाई को।

पूरे टोले में बलराम और तुलसी को सब छेड़ते हुए लैला मजनूँ बोलकर चिढ़ाते थे।


पति का इतना प्यार पाकर और यह सुनकर तुलसी तो निहाल हो जाती। रात भर वह भी पति के साथ प्यार की इन बातों में खो जाती।

.यूँ प्यार मुनहार तले तुलसी के तो शादी के पहला साल खत्म खत्म होते होते तो लाडो पेट में आ गई थी उसके बाद तो कहां समय मिल पाया था। फिर भी... तीज तीज त्योहारों पर मेहंदी लगाती और भर भर हाथ चूड़ियां पहनती तो रात भर बलराम उसके हाथ को सूंघता रहता था और कहता कि...


जबकि वह भी जानती थी, और बलराम भी जानता था कि सास तो सुबह उठकर उससे काम करवाएगी और बलराम अगर उसकी मदद करने आएगा तो उसे "जोरू का गुलाम" कहकर टरका देगी।

.बस...अब कुछ दिन तक तू कोई काम नहीं करेगी। पानी छूने छापने वाले काम तू रहने देना। मैं कर दिया करूंगा सब। अगर तू काम करेगी तो तेरी मेहंदी उतर जाएगी!"


पर... जितने समय भी तुलसी और बलराम साथ रहते उनमें प्रेम ही प्रेम सिरजता रहता।

पर...लगता है...सच्चे प्यार की उम्र छोटी होती है। और विधना ने तुलसी की किस्मत में भी बलराम का प्यार बहुत कम दिनों के लिए लिखा था। तभी तो... मामूली सा निमोनिया बलराम के लिए असाध्य हो गया और उसे दुनिया से लेकर ही माना।


और.....

तबसे तुलसी कहाँ पहन पाई थी चूड़ियाँ और कहाँ लगा पाई थी मेहँदी....?


इसलिए तो वह भगवती के लिए चुनकर छांटकर ऐसा लहंगा लाई थी जिसकी किनारी में हरा रंग ज़रूर हो। ताकि जब... गौरवर्ण भगवती लहंगा पहने तब सोने के बाला के साथ हरी चूड़ियां जोड़ लगाकर पहन सके।


ऐसे ही ना जाने वो कब तक अपनी लाडो को निहारते ही रहती कि बिशनपूर वाली छोटी बहू ने आकर टोक दिया,


"ई का जिज्जी ! अभी से लल्ली को देखकै आँखें भर आईं?"


"नहीं री ! मैं तो उसके भाग को सराह रही थी!" सच भागोंवाली तो है लल्ली!"


तभी भगवती की नज़रें अपनी माँ से टकराई और वह मुस्कुराई। फिर पता नहीं कैसा लाड़ उमड़ आया अपनी माँ पर कि मेहँदी वाली हथेली छुड़ाकर दौड़कर तुलसी की तरफ आई और जिस हाथ में मेहँदी नहीं लगी थी उस हाथ से तुलसी का हाथ पकड़कर बोली,


"चलो अम्मा! तुम भी लगवा लेओ मेहंदी!" "अरे... लल्ली...! "


पागल हो गई हो क्या? मैं कैसे लगा सकती हूँ मेहंदी? तू यह कैसा अनर्थ करने जा रही है?"


अब तक बिशनपुर वाली भी दोनों माँ बेटी का आलाप प्रलाप सुनकर अपनी तरफ से कुछ बोलने जा ही रही थी कि... भगवती ने बचपन की तरह माँ से ठुनककर कहा,


"अम्मा... चलो ना लगवा लो मेहँदी ! बचपन से जानती हूँ आपको कितना पसंद है मेहँदी लगवाना! "


"तू तो आज लगता है पूरी तरह पगलाए गई हो। भला हम विधवा भी कभी मेहँदी लगाती हईं!"


अब तक जो भगवती बालिका की तरह ठुनक रही थी। अचानक यह सुनकर उसके अंदर की एक पढ़ी-लिखी लड़की जागरूक हो उठी। सीधे से तर्क देते हुए बोल उठी ,


" क्यों नहीं लगा सकती अम्मा? ज़ब इन्हीं हाथों से प्यार दुलार पाकर मैं बड़ी हुई तो आज इन हाथों में मेंहदी क्यूँ नहीं लगा सकते? "


अब तक लगभग घर की सारी स्त्रियां वहाँ जमा हो चुकी थी। श्रृंगार पटार से लदी फदी बड़ी ताई ने सुना ही दिया।

"अपशकुन होता है रे बेटा! एक विधवा शुभ कामों में अपशकुनि मानी जाती है। तू ई ज़िद छोड़ दे!"


अब भगवती लगभग सबको सुनाते हुए बोल उठी। उसकी आवाज़ थोड़ी तेज़ हो चुकी थी।

...


"ऐसा कैसे...? एक माँ अपशकुनि कैसे हो सकती है...? माँ सिर्फ माँ होती है। और एक बच्चे के लिए उसकी माँ से ज़्यादा शुभ कोई नहीं हो सकता।

और..

अगर...मेरी माँ मेरे लिए अपशकुनि हई तो मैं भी अपशकुनि हूँ !"

अब सभी महिलाएं हक्की बक्की रह गई किसी को कुछ जवाब नहीं सोच रहा था।

अब तुलसी ने थोड़ा डांट कर कहा,

"बस बहुत हो गया बेटा यह महापुराण! अब इस बात को यहीं खत्म कर और चलकर मेहंदी लगवा ले!"

" नहीं... नहीं...ऐसा तो नहीं होगा अम्मा! अब जब तक तुम नहीं मेहँदी तो लगवाओगी अब मैं भी नहीं लगवाऊंगी!"

यह कैसा बालहठ था बिटिया का।


एक तरफ तो तुलसी को अपनी बेटी पर प्यार भी आ रहा था तो दूसरी तरफ सभी औरतों की बातों और चेहरे के हाव-भाव देखकर शर्म से गड़ी भी जा रही थी।


तभी भगवती ने ऐसी बात कह दी कि अब तुलसी मना नहीं कर सकती थी।

" अम्मा! तुम्हें मेरी कसम है। अगर तुम मेहँदी नहीं लगवाओगी तो मैं भी नहीं लगवाऊंगी!"

अब तो फेर में पड़ गई तुलसी...!

उसने भी तो एक बार बलराम की झूठी कसम खा ली थी। तभी तो नहीं रहे थे बलराम ।

तुलसी वह रात कहां भूल गई थी जब उसने बलराम की झूठी कसम खाई थी।

उसकी तीसरे दिन तो बलराम की अर्थी उठ गई थी। तबसे तुलसी नहीं खाती झूठी कसमें।

और कोई जो तुलसी को कसम दे देता है तब उस कसम का मान भी रखती है।


तुलसी के मन में अब भी यही बात थी कि उसने बलराम की कसम नहीं मानी तभी वह दुनिया से चला गया ।


यह बात ज़ब एक बार ऐसे ही उसके मुंह से निकल गया था कि... उसे कसम से बड़ा डर लगता है । और उसके मन में तो बात है कि उसने उसके बाबा बलराम की एक कसम नहीं मानी इसलिए वह दुनिया से चले गए!"

बस....!

तब से भगवती को भी अपना कोई भी काम करवाना होता तो तुलसी को कसम दे दिया करती थी। और लाडो को कुछ हो ना जाए...

इस डर से तुलसी उसकी बात मान जाती थी।


आज भी भगवती ने उसी ब्रह्मास्त्र का सहारा लिया था।

और... सबने देखा...

थोड़ी देर में तुलसी अपने हाथों में मेहंदी लगवा रही थी। और आज बड़े सहेज कर रखी हुई हरे कांच की चूड़ियां एक बेटी अपनी माँ की कलाइयों में पहना रही थी।

और तुलसी की आंखों से झर झर नोर कह रहा था। आज उसे अपनी बेटी में बलराम की झलक नजर आ रही थी। वही हठपूर्ण आग्रह और वैसा ही रोब।

कितने अधिकार से अपनी अम्मा की कलाई में पहना रही थी... हरे कांच की चूड़ियाँ।

और...

समाज के नियम प्रति नियम से अलग...

विधवा सधवा से परे आज एक स्त्री अपने स्त्रीत्व से नहाई हुई कितनी सुंदर और कितनी पूर्ण लग रही थी।


(समाप्त )



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