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Sudha Adesh

Inspirational

2.6  

Sudha Adesh

Inspirational

लक्ष्मण रेखा

लक्ष्मण रेखा

10 mins
511


माँ को पिछले महीने भर से अपनी सेवा करते देख अरूणिमा के मन में अपनी सहेली मीनल के स्वर गूँजने लगे....‘आँटी बहुत अच्छी हैं अरू, पर तेरे मन में न जाने क्यों उनके प्रति प्रेम और विश्वास नहीं है। माना वह गाँव की सीधी सादी महिला है पर इसका यह मतलब तो नहीं कि वह आदर की पात्र ही नहीं हैं।'

पापा भी जब तब उससे यही कहते रहते थे पर आज उन्हें देखकर उसे लग रहा है कि वही पूर्वाग्रह से प्रेरित थी, माँ उसकी उपेक्षा, लाँछना सहते हुए भी अपना कर्तव्य और उत्तरदायित्व निभाती रहीं, वही उनके निस्वार्थ प्रेम को नहीं समझ पाई।

माँ गाँव की सीधी सादी महिला हैं। वैसे तो वह ग्रेजुएट थी पर हिन्दी माध्यम से पढ़े होने के कारण वह अंग्रेजी पढ़ और समझ तो लेतीं थीं पर बोल पातीं थीं। ऐसा नहीं है कि उन्होंने सीखने की कोशिश नहीं की मगर जब-जब भी वह इस जुबान को अपनी जुबां पर लाती, दादी के चेहरे पर आती व्यंग्य की रेखायें उनके हौसलों को पस्त कर देतीं।


दादी ठेठ , गँवार और अनपढ़ महिला थीं। उनके मुँह से शब्द कम निकलते, निकलती तो सिर्फ गालियाँ, उनकी गालियों की बौछार से घायल उसकी अपनी माँ तो उसको जन्म देने के कुछ ही महीने पश्चात ही हार्ट अटैक से मर गई थीं। पापा के बार-बार मना करने के पश्चात भी दादी माँ ने उसकी देखभाल का वास्ता देकर उनका दूसरा विवाह करवा दिया था किन्तु उनकी कठोरता में कोई कमी नहीं आई थी। हाँ इतना अवश्य हुआ था कि नई माँ के आने के पश्चात दादी उसको लेकर थोड़ा ज्यादा ही पजैसिव हो गई थीं। वह उसके लिये नई माँ तो ले आई थीं लेकिन मन में छिपे अज्ञात भय के कारण उन्होंने माँ को उसके करीब नहीं आने दिया। माँ अगर उसके पास आने या उसका कोई काम करना चाहती तो वह उन्हे झिड़कते हुए कह देतीं....‘तू दूसरा काम कर, अरू को मैं देख लूँगी।’

वास्तव में उसका नई माँ के प्रति द्वेष भावना दादी के अतिरिक्त अड़ोसी-पड़ोसी तथा इष्ट मित्रों की हवा पाकर जब तब उग्र होकर न केवल उसे अशांत कर डालती थी वरन् निर्दोष माँ को भी बेवजह ही कटघरे में खड़ा कर दिया करती थी तब वह उनका प्यार तो देख पाती थी पर उनकी जरा सी डाँट उन्हें ‘सौतेली माँ’ के कवच में बंद कर दिया करती थी।

सिर्फ पापा ही उन दोनों के संबंध सामान्य बनाने का प्रयास करते रहे थे किन्तु दादी ने उन दोनों के बीच जो लक्ष्मण रेखा खींच दी थी वह उनकी मृत्यु के पश्चात भी नहीं मिट पाई थी।

अरूणिमा को याद आया, एक बार वह स्कूल से लौटते हुए अपनी मित्र मीनल के साथ उसके घर कुछ नोट्स लेने गई थी। मीनल को देखते ही उसकी माँ ने उसे डाँटना प्रारंभ कर दिया। वस्तुतः उस दिन उसे स्कूल से आने में देर हो गई थी, जिसके कारण वह परेशान हो उठी थीं। परेशानी और चिंता के कारण उन्हें यह भी याद नहीं रहा था कि मीनल अकेली नहीं है वरन् उसकी मित्र भी उसके साथ है।

ठीक उन्हीं की तरह उसने माँ को अपने लिये परेशान होते देखा है। जब भी वह उससे इस तरह की पूछताछ करती तब वह ठीक से उत्तर न देकर यह कहकर उनका मुँह बंद कर देती थी, ‘अब मैं बड़ी हो गई हूँ।, अपना भला, बुरा समझाती हूँ अतः आप व्यर्थ पूछताछ न किया करें।’

 किन्तु उसके विपरीत मीनल ने माँ की डाँट सहकर ‘ सारी ’ कहकर क्षमा याचना कर ली थी।


मीनल की माँ का व्यवहार उसे अचंभित कर रहा था। दूसरे दिन अरूणिमा ने मीनल से इस संदर्भ में पूछा तो उसने सहज स्वर में कहा, ‘ बुरा, कैसी बातें कर रही है, अरू, वह मेरी माँ है....देर से आने पर चिंता होनी स्वाभाविक है। उनकी डाँट में प्यार था, मेरे प्रति चिंता थी, जिसे हम प्यार करते हैं या जिस पर अपना अधिकार समझते हैं उसे ही हम डाँटते भी हैं। जहाँ डाँट न हो, एक दूसरे के प्रति चिंता न हो, सिर्फ प्यार ही प्यार या प्यार करने का दिखावा हो, ऐसे रिश्ते सामान्य न होकर असामान्य होते हैं।’

वास्तव में उसके मित्रों में सिर्फ मीनल ही थी जिसे उसका अपनी माँ के प्रति उपेक्षित व्यवहार पसंद नहीं था अतः अवसर पाते ही वह अपनी बात कहते हुए उसे समझाने की चेष्टा करती रहती थी ।


उसे मीनल की ऐसी बातें सदा बुरी लगती रही थीं। अपना विरोध प्रकट करते हुए कई बार उसने मित्रता समाप्त करने की धमकी भी दी थी। वह तो मीनल ही थी जो उसकी मनःस्थिति समझते हुए अपनी कह़ी बातें वापस लेकर जब तब टूटती दोस्ती को बचा ले गई थी लेकिन आज मीनल की समय-समय पर कह़ी वही बातें उसके मन को झकझोर कर सच्चाई से उसका परिचय करवा रहीं थीं।

‘अरू, जूस पी ले बेटा।’ माँ ने जूस का गिलास उसे पकड़ाते हुए कहा।

माँ की आवाज़ सुनकर वह अतीत से वर्तमान में आई। अरुणिमा ने बिना नानुुकुर माँ के हाथ से जूस ले लिया। अन्य कोई दिन होता तो उपेक्षित भाव से कह देती....रख दीजिये, बाद में पी लूँगी पर शायद बदली मानसिक स्थिति के कारण आज वह उनसे कुछ नहीं कह पाई।

माँ के हाथ से जूस लेते हुए न जाने क्यों आज उनके चेहरे पर छाये ममत्व ने उसकी सारी पूर्व धारणाओं को तोड़कर रख दिया। बार-बार एक ही प्रश्न उसके मनमस्तिश्वक में थपेड़े मार रहा था कि वह उसकी माँ नहीं तो और कौन है....एक माँ के अतिरिक्त और कौन अपने बच्चे का इतना ख्याल रख सकता है ?   


जूस पीते-पीते एक बार फिर आत्मविश्लेषण में लग गई.... 

उसे वह दिन याद आया जब वह स्कूल से लौट रही थी, उसकी साइकिल को पीछे से आती कार ने टक्कर मार दी, वह सँभल नहीं पाई, साइकिल तो टूटी ही, वह धक्के से दूर जा गिरी। गिरते वक्त उसका पैर ऐसे मुड़ा कि उसके पैर में फ्रेक्चर हो गया। हड्डी को ठीक से बिठाने के लिये आपरेशन करना पड़ा। पैर में प्लास्टर चढ़ा दिया तथा छह हफ्ते का रेस्ट बता दिया। वह एक महीने से बेड पर ही है।


एक दिन, दो दिन, एक हफ्ते तो कोई दिखावा कर लेगा पर पूरे महीने भर शायद ही कोई दिखावा कर पाये। कभी न कभी तो बेमन से किया काम मन में झुँझलाहट पैदा कर ही देता है, और यह झुँझालाहट स्वभाव में भी परिलक्षित हो ही जाती है। वह जब-जब माँ के बारे में सोचती, उसे ऐसा कुछ भी नहीं लगा....जब तक वह अस्पताल में रही, तब तक अस्पताल से घर, घर से अस्पताल ही उनकी दिनचर्या बनकर रह गया था । जब से वह घर आई है तब से वह उसकी सारी आवश्यकताओं...समय पर नाश्ता खाना, बेड पैन देना, उसको नहलाना, कपड़े बदलना सब वही कर रही हैं। उसे उनके हाथों से बैडपैन लेना और स्पंजिंग कराना अच्छा नहीं लग रहा था पर मजबूर थी पर तब भी कशमकश मैं उलझा मन सच्चाई स्वीकार नहीं कर पा रहा था...। उसे उनका प्यार, ममता दिखावटी लगती पर वह यह नहीं सोच पा रही थी कि वह यह सब किसलिये कर रही हैं, क्या वह उसे चाहती हैं ? उन्हें उसकी परवाह है या इसमें उनका कोई स्वार्थ है। उसे लगता था कि वह एक अच्छी नर्स हो सकती हैं पर माँ नहीं। उसके अनुसार वह ऐसा करके पापा को प्रभावित करना चाहती है क्योंकि वह जानती है कि पापा उसकी आँखों मे एक आँसू भी नहीं देख सकते हैं।

कभी-कभी तो वह उन्हें परेशान करने के लिये बेमतलब झुँझलाती। कभी खाना माँगती तो कभी झुँझलाते हुए मना कर देती पर वह शांत भाव से अपना काम करती रहती ।


यहाँ तक कि रात्रि में भी वह उसके पास यह सोचकर सोती कि पता नहीं कब उसे उनकी आवश्यकता पड़ जाए। टी.वी. भी उन्होंने उसके कमरे में शिफ्ट करवा दिया जिससे कि उसका समय आराम से कट जाए।

इतना सब करने पर भी बार-बार उसका झुँझलाना, बात-बात पर क्रोधित होना सब तो उन्होंने सहा था। उसका उनके प्रति व्यवहार देखकर एक दिन परेशान होकर उसके पापा ने कहा था,‘ अपनी माँ को गलत मत समझा बेटा, अब तू बड़ी हो गई है इसलिये बता रहा हूँ तेरे मन में कोई दुर्भावना न आये इसीलिए उसने अपना बच्चा नहीं चाहा और तू है कि उसकी सारी कोशिशों के बावजूद उसे अपना नहीं पा रही है।’


 ‘तो मैं क्या करूँ ? मैंने तो उन्हें यह सब करने के लिये नहीं कहा था....ऐसा करके वह महान बनना चाहती हैं तो बने पर वह मेरी माँ का स्थान कभी नहीं ले सकती।’

उसका उत्तर सुनकर पापा बहुत मायूस हुए थे तथा चुपचाप चले गये पर माँ सदा की तरह अपना कर्तव्य निभाती रहीं। आज लगभग एक महीना हो गया है, इस एक महीने में उसने उन्हें बेहद नज़दीक से देखा, परखा और समझा। कई दिनों के चिंतन और मनन के पश्चात जो निष्कर्ष उसके अपने मन ने दिया उसे जानकर वह स्वयं अचंभित है बार-बार अनदेखी करने के बाद भी दिल की आवाज उसे चेताने लगी हैं, अरू, सारे पूर्वाग्रह त्यागकर अब तो सच्चाई को स्वीकार....इतना सब कोई अन्य नहीं, वरन् कोई अपना ही कर सकता है।

आत्मविश्लेषण में लगी अरूणिमा समझ नहीं पा रही थी कि असली माँ और सौतेली माँ में क्या अंतर होता है ? लोग क्यों सौतेली माँ के प्रति बच्चे के मन में जहर भरते रहते हैं....क्यों उसे सदा शंका की नजर से देखा जाता है?


उनके इतने पास रहकर भी वह क्यों नहीं समझ पाई की माँ केवल माँ होती है, केवल जन्म देने से कोई माँ नहीं बन जाता....माँ बनने के लिये एक स्त्री में त्याग और तपस्या जैसे गुण होने चाहिए....वैसे भी अपने बच्चे की परवरिश तो सभी कर लेते हैं पर महान वह है जो दूसरे के बच्चे को भी अपना समझकर पालन पोषण करे। आज उसे लग रहा था कि पापा ठीक ही कह रहे थे....उसकी दूसरी माँ ने अपना कर्तव्य पूरे मन से निभाया पर वही दूसरों के बहकावे में आकर उनके प्यार और अपनत्व को पहचान नहीं पाई ।


समय के साथ उसकी चोट ठीक हो गई थी किन्तु अपने पूर्व व्यवहार के कारण वह अब भी माँ के साथ सहज नहीं हो पा रही थी....शायद रिश्तों में आई दरार को पाट पाना सहज नहीं होता। परीक्षाओं के पश्चात एक दिन वह अपने कमरे की सफ़ाई में लगी हुई थी कि सैल फोन की घंटी टनटना उठी....


 ‘अरू, क्या आज तुम मेरे साथ मार्केटिंग के लिये चल सकती हो।’ मीनल की आवाज़ थी।

‘ मार्केटिंग....।’

‘दरअसल कल ‘ मदरस डे ’ है....मैं ममा के लिये उपहार खरीदना चाहती हूँ...। तुम रहोगी तो उपहार चुनने में आसानी रहेगी ।’

 ‘ठीक है चलूँगी।’ अरूणिमा ने कुछ सोचते हुए कहा ।

‘पाँच बजे आऊँगी,तैयार रहना ।’ कहकर उसने फोन बंद कर दिया ।

कल ‘ मदरस डे ’ है, उसे याद ही नहीं रहा। याद भी कैसे रहता, उसने माँ को कभी माँ समझा ही नहीं जो उपहार के बारे में सोचती ।


मीनल उपहार का चुनाव करते हुए उससे सुझाव माँग रही थी अंततः उसने माँ के लिये एक ज्वैलरी बाक्स खरीदा तथा उसे पैक कराने लगी....। अरूणिमा के मन में भी एक द्वन्द्व चल रहा था जिसे छिपाने के लिये वह दुकान में लगे अन्य गिफ्ट आइटम देखने लगी....एकाएक उसकी नजर एक मूर्ति पर टिक गई.....मुँह पर माखन लपेटे कृष्ण तथा उन्हें डाँटती माँ यशोदा।

उसका और माँ का संबंध भी तो ऐसा ही है....अरूणिमा ने सोचा ।

‘इसे भी पैक कर दो।’

मीनल को आश्चर्य से अपनी ओर देखते देख अरूणिमा ने झिझकते हुए कहा,‘ मैं भी माँ को उपहार देना चाहती हूँ ।’

‘लेकिन वह तो तुम्हारी।’ मीनल ने गहरी नजरों से उसे देखते हुए कहा ।

सौतेली है तो क्या हुआ....माँ तो हैं....।’ मीनल की बात काटते हुए अरूणिमा ने झिझकते हुए धीरे से कहा ।

‘सच अरू, आखिर तुमने अपनी माँ के निश्चल प्यार को पहचान ही लिया ।’ मीनल ने उसका उत्तर सुनकर ख़ुशी से कहा ।

 ‘हाँ मीनल, तुम ठीक थीं....मैं ही गलत थी।’


अरुणिमा ने सोच लिया था कि अब वह दूसरों की बात नहीं सुनेगी....जो उसे ठीक लगेगा वही करेगी। उसे माँ का जन्मदिन तो पता नहीं है....शायद पाश्चात्य संस्कृति से अपनाया गया यह दिन ही उसके जीवन में ख़ुशियाँ भर दे।

उसने रात्रि में ही अपने उपहार पर ‘ सबसे अच्छी मेरी माँ ’ लिखकर ऐसी जगह रख दिया जहाँ पर सुबह उठते ही माँ की नजर उस पर पडे़ ।


सचमुच दूसरे दिन की पहली किरण के साथ ही घर उजालों से भर गया, उसे देखते ही माँ की आँखों में ख़ुशी के आँसू आ गये....शायद उनकी वर्षो की तपस्या सफ़ल हो गई थी, इसके साथ ही उनके बीच वर्षो से खींची लक्ष्मण रेखा भी हट गई थी ।     

   


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