अनछुआ मन
अनछुआ मन
मन के किसी कोने में दीवारों से चलकर आई एक उदास सी सिसकी कानों में घुल गई।
अरे ! मनन बेटा ऐसे उदास क्यों बैठे हो ? आज तुम्हारी पसन्द के राजमा चावल बनाए हैं।"
यह सुनते ही उसके चेहरे पर बरबस ही एक हल्की सी मुस्कान आ गई।
"चलो उठो, पापा के पास चलकर बैठते हैं।
लैपटॉप रखकर बाहर आ जाओ।"
मेरे कहने पर वह उठकर बाहर आ गया।
आज दसवीं का रिजल्ट आए तीसरा दिन था और बेटे के कम नम्बर आने से जो बवंडर घर में आया था उसकी धूल-मिट्टी अभी भी इधर उधर सबके चेहरे पर चिपकी हुई सी महसूस हो रही थी। हँसी मज़ाक करते हुए मैंने बेटे से कहा, "तुझे बहुत बुरा लगता है न कि कभी मम्मी तो कभी पापा टोकते रहते हैं। फोन रख दो, लैपटॉप बन्द करो,अभी कुछ अच्छी किताबें पढ़ो, वगैरह वगैरह।
नहीं इसको क्यों खराब लगेगा ? माँ बाप का कहना तो बच्चों को मानना ही चाहिए।" अचानक से पतिदेव बोल पड़े।
बेटे के चेहरे के उतार-चढ़ाव वाले भावों को देखते हुए मैंने कहा, "यह तो आवश्यक नहीं है न कि हमारी हर बात यह माने, इसकी भी कुछ करने या कहने की इच्छा होती होगी न !
बेटे ने नज़र उठा कर मेरी तरफ देखा, लगा थोड़ी धूल छँटी है वहाँ से।
"बेटा जब हम लोग तुम्हें किसी बात को लेकर टोकते हैं तब तुम्हें लगता होगा न कि इन लोगों के साथ रहने से अच्छा है कहीं चला जाऊं, या यह लोग हमेशा अपनी ही क्यों चलाते हैं क्या मैं कोई बच्चा हूँ ?
जब देखो तब यह मत करो वह मत करो।"
सुनते ही बेटा आश्चर्य से उछलता हुआ कहता है, "मम्मा आपको क्या पता कि मैं यह सब सोचता हूँ ? क्या आपने नींद में बोलते हुए सुना है मुझे ?"
तभी पतिदेव बोल पड़े, "तेरी मम्मी के पास जादू है।"
"बताओ न मम्मा आपको कैसे पता कि मैं यही सब सोच रहा था ?"
मैंने कहा, "बेटा तुम्हारी उम्र ही ऐसी है जब बड़ों की कही हर बात टोका-टाकी लगती है और खुद को बच्चा बहुत समझदार व काबिल समझने लगता है, यह तुम्हारा नहीं तुम्हारी किशोर उम्र का दोष है।"
"मुझसे दोस्ती करोगे ?"
अब मुझे मेरा बेटा वापिस मिल चुका था।