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मेरा ठौर किसी से न बताना...

मेरा ठौर किसी से न बताना...

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बाँके बिहारी जी के सामने प्रसाद की सजी दुकानें, कतार में ही बैठे गुलाब, गेंदे, बेला, मोगरे के फूलों की मालाएं, नील पदम्, तुलसी दल की टोकरियां सजाये मोरपंखी बेचते बच्चे। अद्भुत मानसिक शांति उस भीड़ में भी । प्रसाद, माला, फूल लेकर कतार से होती हुई मंदिर के भीतर बिहारी जी के ठीक सामने उनका मनोहर स्वरूप, पीत वस्त्र में अनुपम छटा है, श्याम -वर्ण, त्रिभंगी स्वरूप, रत्नजटित मुकुट धरे लगता है बस अभी बाँसुरी की तान देने ही वाले है। हाथ जोड़े लगातार होठ बुदबुदाते हाथ पसारे हम, पंडित जी ने प्रसाद चढ़ा कर वापस डिब्बा पकड़ा दिया, तुलसी दल, चरणामृत पाकर आखों और माथे से लगा कर धन्यभाग मान, एक किनारे वहीं जहाँ विहारी जी के चरणपाद थे बैठ गई।

अधरं मधुरं, वदनम मधुरं,

नयनम मधुरं, हसितं मधुरं।

ओउम नमो भगवते वासुदेवाय और न् जाने क्या -क्या जो कुछ भी याद आता रहा अनवरत जाप करती गोद में प्रसाद लिए बैठी असीम शांति का अनुभव कर रही थी। नयनाभिराम कृष्ण बिहारी जी को देखने और उनके समक्ष बैठने के बाद अपूर्व शांति का अनुभव पा कर वहाँ से उठ कर बाहर आ गई। बाहर हर जगह माइयां अपने कटोरे या झोली फैलाये बैठी थी। विदीर्ण कर देने वाला दृश्य। हर उम्र, चालीस की प्रौढ़ा से लेकर उम्र के आखिरी पड़ाव तक ।

सुन्दर कटीली बड़ी बड़ी आँखे, सुतर नासिका, पतले गुलाबी होठ, लाल पतले किनारे की साड़ी उम्र यही कोई सत्तर - पचहत्तर के बीच। साड़ी पहनने का ढंग बता रहा था कि वो बंगाल से है। इस उम्र और इस दशा में भी ये रूप, मन प्रश्नों के बोझ से दबने लगा। मैं बढ़ती हुई उनके पास तक पहुँच गईं । उन्होंने झोली फैला दी।मेरी आँखे आंसुओ से भीग गई । उन्ही के पास बैठ सोच नही पा रही थी क्या बोलूँ गला अवरुद्ध हो रहा था ।

माई ! आप बंगाल से है ?

हाँ, मुझे एकबार देख कर फिर अपने में। मेरी जैसी न जाने कितने दर्शनार्थियों से प्रतिदिन सामना होता होगा उनका ।

माई, आपका नाम ? - मैंने धीरे से सकुचाते हुए पूछा।

नाम का क्या करोगी जो नाम था उसे बिहारी जी को दे दिया ।अब तो बस बिहारी जी ही हमारे स्वामी, वही आधार हैं वही मेरा सारा जीवन का भार उठाये है।

मन और भावुक हो उठा।

कहाँ ठिकाना हैं ? मैंने पूछा

है न, आसरा दिया है। आश्रम है।

मुझे आश्रम दिखा सकती है ? - मैंने कहा

हाँ, लेकिन आज अभी तक मेरी झोली में कुछ नही पड़ा, ये देखो, और उन्होंने अपनी खाली झोली मेरे सामने पसार दी। मैने बंद मुटठी में लिए रुपये उनकी हथेली में थमा उनकी मुठ्ठी बंद कर दी।

माई आश्वस्त हो अपनी झोली, डिब्बा और लाठी सम्भालती उठी मैं उनके पीछे चल पड़ी।

माई दो तीन पतली गलियों से निकलती अपने आश्रम पर आ गई । बड़ा सा हाल, एक किनारे ढोल, हारमोनियम, मजीरे, करताल, दरी रक्खे थे कुछ माइयाँ पास में बैठी बातें कर रही थी।आगे बढ़ने पर डॉरमेट्री जैसा दोनो तरफ लाइन से लगी चारपाई बगल में छोटी मेज ।कुछ माइयाँ सो रही थी, कुछ ऊंघ रही थी । माई ने अपनी झोली, डिब्बा चारपाई के नीचे रख दिया और लाठी वही किनारे टिका दी। मुझे चारपाई पर बैठने का इशारा कर खुद बैठ गई।मैं चारो तरफ उत्सुक नजरो से देखती सब कुछ पढ़ लेना चाहती थी।

बंगाल में कहाँ घर -परिवार है ? - मैंने पूछा

बंगाल जानती हो तुम ? कालीघाट का नाम सुना है ? वही था मेरा घर-बार ।लेकिन सब छूट गया। माई ने इतना कह के लम्बी सांस ली।

कैसे ? मैने उत्सुक हो प्रश्न किया ।

क्या करोगी, सब छूट गया मेरा घर, बाग-बगीचा । भरा-पूरा परिवार था। ब्याह हुआ था सुदीप्तो सान्याल से। मेरा पति बहुत प्यार करता था मुझको। वकालत पढ़ रहा था । बहुत खुश थे। शादी के साल भर बाद ही वो बीमार हो गए बहुत इलाज हुआ लेकिन नही बचे। मैं अपने मायके आ गई । भाई-भाभी मेरे वहाँ जाने से खुश नही थे। हमको लेकर भाभी - भाई और मां में लड़ाई होने लगी। बस एकदिन मेरी मां मुझे लेकर निकल पड़ी और पूछते -पूछते यहां आश्रम में हमकों छोड़ गई ।यहीं कान्हा का भजन-कीर्तन करते मैंने जीवन काट दिया ।अब तो बस इन्ही का सहारा है।

कोई आया नही कभी आपको देखने ?

हाँ, आई थी न माँ, एकबार।

बहुत रोती थी ।लेकिन वो भी मजबूर थी ।समझा बुझा कर चली गई ।

वो भी वृद्ध होती गई ।फिर कैसे आती ।

यहाँ मुझे कोई कष्ट नही है बस सब यही कान्हा के सहारे है।अब क्या है बस कुछ साल और ।फिर चलाचली।

बगल की खाट पर हल्की आसमानी छीट की साड़ी पहने आँचल से अपने चहरे को ढक कर सोती हुई माई जाग गई थी ।थोड़ी हलचल के बाद वो उठ बैठी। आँखे धंसी, गाल बैठे हुए, अस्थिपंजर सा दुर्बल शरीर, मलिन स्वरूप । अभी मैं उन्हें देख कुछ सोच समझ ही रही थी कि वो जोर से मेरी तरफ मुखातिब हो बोली-प्रियम ! तुम प्रियम्बदा चौधरी ।

मैं हक्का - बक्का । प्रियम, ये तो मेरे हॉस्टल का प्रचलित नाम था, मित्र -मंडली के बीच ।दिमाग मे घोड़े दौड़ने लगे, कुछ याद नही आ रहा था ये कौन हो सकता है।

बनारस में मैत्रेयी छात्रावास । अंग्रेजी साहित्य में एम .ए किया था ।दिमाग में क्षण भर में कितने नाम, कितनी तस्वीरे घूम गई। कोई भी तस्वीर वर्तमान से मेल नही खा रही थी ।तीस बरस का अंतराल भी तो था।दिमाग काम नही कर रहा था।लकवा सा मार गया था।

हाँ, लेकिन आप, मैंने दबी जबान, हकला कर पुछा।

मैं बिन्नी, विनोदनी प्रकाश।

ओहहह, कांप गई मैं।। हे विधाता ! ये क्या ।वो रूप लावण्य, गदराया भरापूरा शरीर, और कहाँ ये अस्थिपंजर, कोई श्वेतवर्णा कैसे इतने गहरे श्याम वर्ण की हो सकती है। वो फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाली, जीन्स - स्कर्ट जैसे उस समय के आधुनिकता की पोषक पोशाक जिसकी पसन्द थे, ये छीटदार सिकुड़ी, मुड़ी -तुड़ी सूती धोती में लिपटी कृशकाय, लाइब्रेरी से अंग्रेजी के ही नॉवेल इशू करवाने वाली जब कि तब ज़्यादातर लड़कियां हिंदी माध्यम ही रहती थीं ।आज कीर्तन की फ़टी सी किताब सिरहाने रक्खी थी ।अक्सर ही शाम को लड़कियों के झुंड में बैठ कर गिटार बजाना, और मस्ती भरे गीत गुनगुनाना।

"सांसो की जरूरत है जैसे जिंदगी के लिए

बस एक सनम चाहिए आशिकी के लिये।"

गिटार पर ये गीत बजाना बिन्नी को बहुत पसंद था। विल्कुल डूब कर बजाती थी, मस्त होकर।

बिन्नी ऐसे कैसे हो सकती है, मेरा मन कतई मानने को तैयार नही हो रहा था।

मैं उस चारपाई की तरफ बढ़ गई। बिन्नी ने मेरा हाथ थाम लिया । कांप रहे थे हम दोनों के हाथ। आँखे दोनों की बह रही थी ।

क्या पूछूँ, क्या कहूँ।

हे प्रभु ! ये जीवन के कौन से निर्मम सच से मेरा सामना कराया।

बिन्नी ने ही कहा--पूछोगी नही, मैं यहाँ क्यूँ हूँ, कैसे पहुँची यहाँ ।

प्रतिउत्तर में मैं उसका हाथ थामे हाथ सहलाती बैठी रही निःशब्द ।

प्रश्नों का ज्वारभाटा भीतर दहाड़े मार रहा था ।

बिन्नी ने बोलना शुरू किया-एम ए के बाद घर आ गई थी, पापा ने कहा कुछ और आगे के लिए कर लो ।मैने कहा नही पापा, मुझे अब शादी करनी है ।पापा बोले ठीक है जब तक तय नही होती तब तक तो कही कुछ कर लो।

बिन्नी की बात बीच में काटते हुए मैंने कहा, वो राजीव ?

हाँ, उसने वादा किया था, शादी करेगा।पापा से बात भी कर ली थी ।लेकिन जब उसका सिविल में चयन हो गया उसके बाद उसने मुझसे मिलना छोड़ दिया था।मेरे कहने पर पापा ने उसके घर जाकर उससे और उसके घर वालोँ से बात भी की लेकिन राजीव ने ही इनकार कर दिया।

बहुत से रिश्ते मिले बातें हुई, मिलना हुआ, लेकिन बस क्या कहूँ, ऊपर वाला कुछ और ही लिख कर बैठा था ।

एकदिन मैने ही कह दिया मुझे शादी नही करनी वृंदावन जाना है।बस भगवान में ही लीन होना है।

मेरे इस निर्णय से पापा-मम्मी हिल गये। लेकिन मैं अडिग थी अपने निर्णय पर । दोनों बहुत रोये ।एकदिन मम्मी-पापा ने मुझे लाकर यहाँ पहुँचा दिया।पापा बार -बार मिलने आते, उन्हें यही लगता मैं वापस घर लौट जाऊँगी । लेकिन मेरा मन सांसारिकता से ऐसा विरत हुआ कि बस...।

अब ? मैंने प्रश्न किया

पापा का स्वर्गवास हो गया है।

- मम्मी, डिप्रेशन में है, सिन्नी के पास।

सिन्नी ,सुहासिनी प्रकाश, याद है छोटी बहन, अपने से दो साल जूनियर ?

हाँ,

वो अमेरिका में है, उसका पति सर्जन है ।

यहाँ, तुम खुश तो हो न बिन्नी ? मैंने पूछा

अब क्या है प्रियम, गलत -सही जो भी है, तुम्हारे सामने है।सुबह चार बजे उठ जाती हूँ, नित्य क्रिया के बाद भजन- कीर्तन के लिए मंदिर निकल जाती हूँ । वहां भजन के बाद कुछ खा कर, घँटे भर मंदिर के बाहर बैठ जाती हूँ, जो कुछ भी मिला लेकर वापस आश्रम आ जाती हूँ,।घर-परिवार से विरत होना ही शायद मेरी नियति रहा होगा।जीवन मिथ्या है- -ब्रम्हम सत्यं, जगत मिथ्या- -कहती हुई, मेरे हाथ को दबाया।जैसे समझाना चाह रही हो । मैं लगता था जैसे किसी थियेटर में हूँ या कोई स्वप्न देख रही हूं...! कैसे यकीन करूँ !

बिन्नी की बातों से मैं कितनी ही बार भावुक हो रही थी मगर बिन्नी सीधी -सपाट निर्लिप्त ।

हाल से हारमोनियम, ढोलक, की आवाज आने लगी थी।

बिन्नी उठने को हुई ।

मैंने डरते -डरते कहा-विन्नी0कुछ जरूरत हो तो कहो,

नही,क्या चाहिए मुझे, कुछ भी तो नही। बस तुम आज मिली आनन्द की अनुभूति हुई, बस।

मेरा हाथ थामे -थामे ही पकड़ गहरी की और बोली, बस एक वचन दो, मेरा ठौर -ठिकाना किसी को नही बताओगी। जाओ खुश रहो। मेरे कीर्तन का समय हो चुका है, जाओ प्रियम ।

सिद्धार्थ ने ऐसे ही त्यागा होगा यशोधरा को, ऐसे ही छोड़ कर गये होंगे पुत्र राहुल को ।आश्रम की सीढ़ियों पर मैं बैठी थी स्तब्ध। भीतर हारमोनियम, ढोलक, करताल, झांझ, मंजीरा के साथ समवेत स्वर में बस एक ही टेर-

"बनवारी रे, जीने का सहारा तेरा नाम रे

मुझे दुनिया वालों से क्या काम रे ।।


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