शिकारी
शिकारी
रोज मेट्रो स्टेशन से निकलते हुए ,फुट ओवर ब्रिज के नीचे वो मिल जाती। कभी बोतलों, पत्तलों कप, कबाड़ों को बीनती कभी उन्हीं के बीच सिर झुकाये बैठी हंसती उन्हीं से बातें करती । कभी कंकड़ को उठा जमीन पर कुछ लिखती ।कोई कुछ खाने को दे देता उसे चुपचाप खा लेती। रोज ही अपना टिफिन पैक करते हुए 'पगली ' याद आ जाती बस लगे हाथ उसके लिए भी दो पराठे पेपर में लपेट रख लिए जाते और वहीं ओवरब्रिज् के नीचे उसे थमा देती। कभी वह निर्विकार भाव से देखती, कभी -कभी मुस्करा कर धीरे- धीरे कुछ बड़बड़ाती।
पास की झुग्गियों के बच्चों की भी खासी भीड़ वहाँ इकट्ठा हो भीख मांगती रहती। वे बच्चे उसे तंग करते। उसके कपड़े खींचते, कभी उसके उलझें बालों में मिट्टी डालते ,कभी उसे नोचते। वह रोती, चीखती, गुस्सा करती। बच्चे जोर जोर से हंसते।
इधर पगली के व्यवहार में बदलाव आ रहा वो। तो शांत इधर -उधर घूमने – फिरने के बजाय एक कम्बल लपेटे पड़ी रहती।लेटे – लेटे बड़बड़ाती रहती।
इक रोज वहाँ काफी लोग इकट्ठे थे। एकबारगी लगा पगली मर गई।
लेकिन नहीं ,वो तो सुंदर ,स्वस्थ, गौरवर्ण नवजात को सीने से चिपकाये बैठी थी। दो महिलाएँ उसे सहला रही थी इन्होंने ही उसकी प्रसूती करवाई थी। पुलिस भी मूक खड़ी थी। पगली किसी को बच्चे को छूने नहीं दे रही थी।
वह लगातार बोले जा रही थी ' अभी भेड़िया आएगा, अभी भेड़िया आएगा।'
किसी रात के अंधेरे में शिकारी भेड़िये ने पगली का शिकार कर लिया था।