भागीरथी
भागीरथी
उस दिन रविवार की छुट्टी थी।सोचा ...चलते हैं गंगा मैया के दर्शन कर आते हैं । मौसम भी खुशनुमा था,बादलों पर तैरतीं बदलियां विविध रूप रख कर अपनी मौज में इधर से उधर आवाजाही में मशरूफ थीं । घर से थोड़ी दूर पर ही गंगा बहती थी । बहुत ऊँचाई से उतरते- उतरते नीचे पहुँच कर एक टीले पर पहुँच कर पैर नीचे लटका लिए और गंगा की शांत अविरल धारा को अपलक निहारने लगी।
पार्श्व से ध्वनि सुनाई पड़ी । "जय हो गंगा मैया ,सबके पाप धोने वाली, मेरे पाप भी धो देओ। सीता जी के लैं तो धरती फट गयी हती , द्रोपदी के लैं कृष्ण खुद चल के आ गये हते।अहिल्या के लिए राम आये हते। अब का पाप की कमी है जो भगवान जी रूठ गये हैं । उसका स्वर तीव्र से तीव्रता होता जा रहा था, हे गंगा मैया ..! सब आदमी हिजड़ा कर देओ , हे गंगा मैया ..! पापिअन का वंश मिटाय देओ ..हे गंगा मैया..! कोढ़ बहें ...मेरो उद्धार कर देओ ,धरती फाड़ दो,मोये अपने में समाय लो।"
थोड़ी देर बाद वह चली गयी और मैं भी अपने घर आ गयी । मैं भी सोचने लगी घर से बाहर निकलने पर कैसे -कैसे किरदार मिल जाते हैं । बहुत समय बीत गया । एक दिन सुबह -सुबह घर से बाहर मैं मोर पंख देखने के लिए खड़ी थी। कई लोगों ने बताया था कि हमारे गेट के पास जो यूकिलिप्टस के पेड़ हैं, उन पर रात को मोर बसेरा करते हैं । इसलिए सुबह बहुत मोर पंख यहाँ पड़े रहते हैं । मोर पंख किसे नहीं अच्छे लगते, सुबह जल्दी उठ कर टहलने वाले लोग उन्हें उठा ले जाते थे। अतः यह सौभाग्य मुझे नहीं मिल सका।"जो सोवत है वह खोवत है,जो जागत है सो पावत है।" यह कहावत मुझ पर पूरी तरह लागू हो रही थी।
पर इससे मुझे एक फायदा हुआ कि भागीरथी कहीं से काम करके लौट रही थी। मुझे गेट पर खड़ा देख कहने लगी, " चरण छू दीदी ...! हमारे लायक कोई काम होय तो कहियो।"
कह कर वह जाने लगी।
मुझे महसूस हुआ कि मैंने इसे कहीं देखा है, आवाज भी पहचानी सी लग रही है ।
गोरा रंग, लम्बा छरहरा शरीर, होंठों पर खिली मुस्कराहट से लग ही नहीं रहा था कि यह स्त्री घरों में काम करती होगी।
" क्या नाम है तुम्हारा? "
"भागीरथी,,, दीदी ।"
"बहुत सुंदर नाम है, क्या- क्या कर लेती हो?"
" सब कछु कर लेत हैं दीदी" । उसने मुस्कराते हुए कहा।
" इतने काम के बाद भी इतना खुश कैसे रह लेती हो?"
"ऐसे ही हंसत खेल्त दिन कट जायेंगे।राम जी सब पार लगायेंगे।"
मैंने ऐसेही पूंछ लिया ",गंगा दर्शन करने जाती हो?"
" हाँ दीदी, अपने सब दुख गंगा मैया को सुना आवत हैं, और कौन से कहें ।"
"हर रोज जाती हो ? "
"नाहीं ,जब बहुत ही दुखी हुइ जात हैं तबहीं जाती हैं ।"
ऐसे कई मौके आते थे जब उसके पति की ओर इशारा करके लोग पूछ लेते थे, "कि ये तुम्हारे पिताजी हैं "? एक रोज कथा वाले दिन पंडित जी ने कहा, " कहाँ हैं तुम्हारे पिताजी, उन्हें कथा में बिठाओ। " वह अंदर गयी और बिना शिकन ही अपने पति को पूजा के लिए कमरे से बाहर लेकर आयी ।" हुआ यह था कि उसने अपने यहाँ पर मुझे कथा में बुलाया था जब उसका अपना घर बन गया था।
" हओ " ..कहकर उसने अपने पति को आसन पर बैठा दिया। चेहरे पर ना कोई शिकन ना आश्चर्य । शायद पिता जी सुनने की वह अभ्यस्त हो गयीं थी। दरअसल पहली पत्नी की मृत्यु के बाद वह दूसरी पत्नी थी जिसकी शादी इसलिए कर दी गयी थीं, जिससे कि पहली से पैदा बच्चों की परवरिश अच्छी तरह हो सके क्योंकि मौसी तो माँ जैसी ही होती है। लड़की की शादी उसने बहुत कम उम्र में ही एक किसान परिवार में कर दी थी।
उसके ससुराल वाले दहेज के लालच में घर छोड़ गये थे । उसका बच्चा मायके में ही हुआ और छः महीने का भी हो गया पर ससुराल वालों ने कोई सुध नहीं ली। मोटर साइकिल चाहिए थी, अगर नहीं दे सकते तो रखो अपनी लड़की अपने पास।
उसने एक दिन बताया जहाँ वह काम करने बहुत समय से जा रही थी। बहुत पूजा पाठी थे वह साहब जिनके घर वह खाना बनाती थी। एक दिन कहने लगे ।"मेरी घरवाली बन जा। तेरे नाम जमीन कर दूंगा, और देख ये पूरे दस हजार रुपये हैं, रख ले सब तेरे हैं । बोल राजी होती है कि नहीं । घर -घर जूठन धोती है,एक जगह बैठ कर नहीं खा सकती क्या?"
..."दिन रात पूजा करत हो साहब,आपको ऐसी बात करत शर्म नहीं आवत का। काम करिके खाइवे में का बुराई है? साहब!?"
"बड़ी सती सावित्री बनती है "और जबरन उसके हाथ मुँह बांध कर उसके साथ जबर्दस्ती अनुचित कृत्य को अंजाम दे दिया ।
एक दिन वह अचानक आयी और रोने लगी दीदी,"साहब हमें बरवाद कर दिये।"
"हम पुलिस में रिपोर्ट लिखावे गये । मुख्यमंत्री, एस एस पी सबको अपनी बात बतायी, पर काउ ने रपट नाय लिखी।"
इस घटना से मुझे बहुत कष्ट पहुँचा । मैं सोचती कि यह सब जो हुआ, अप्रत्याशित था या झोला भर धन पाने की लालसा के तहत सहज मौन स्वीकृति । क्या निष्कर्ष निकालती मैं ? पर यह सच था कि उसकी कहीं सुनवाई नहीं हुई। उसके सभी कागजात मैंने ही पोस्ट किए लेकिन लम्बे समय तक कहीं से जबाव नहीं आया।
मैंने देखा, वह टूट चुकी थी। चरण छू के सम्बोधन में बर्फ जैसा ठन्डापन आ गया था । अब वह होम गार्ड की ट्रेनिंग लेना चाहती थी। यह ट्रेनिंग उसने बिना अवकाश लिए ही पूरी की। वह मात्र आठवीं तक पढ़ी थी और यही पढ़ाई यहाँ उसके काम आ गयी । अब वह खाकी वर्दी की वैध अधिकारिणी बन गयी थी।
कल की भागीरथी और आज की भागीरथी में अभुतपूर्व परिवर्तन आ चुका था। आत्मविश्वास और प्रफुल्लता से लवरेज।
उसकी एक पुरानी आदत अभी तक नहीं छूटी थी। वह यह थी कि चलते फिरते जो भी मिला पेड़ से तोड़ा और खा लिया । कच्चे -पक्के बेर हों या अमरूद,सुबह के छः बजे हों या शाम के छः। फल दिख जायें तो भर ली अंजुरी और चले जा रहे हैं खाते हुए।
मैं सोचती कि किसी का बचपन अगर जबरन छीन लिया जाये तो वह आदमी के साथ आजीवन साये की तरह लगा ही रहता है। एक बार वह कच्चा नीबू खा रही थी । मैंने पूँछ ही लिया। भागीरथी कच्चा नीबू खाने से तुम्हारे दाँत खट्टे नहीं होते हैं क्या?
"ईमा बहुत विटामिन हैं, दीदी!! औरन के दांत खट्टे करने खातिर हम ये खात हैं । हम साहब नाहीं जो तनी घाम लगे कुम्हला जावें। हमारा शरीर पत्थर का हो गया है दीदी ।"
मुझे लगता ये विटामिन ही उसकी सेहत का राज हैं । पुलिस की वर्दी पहन कर जब वह मेरे पास आती,मेरी भी प्रेरणा बन जाती ।
इंसान चाहे तो क्या नहीं कर सकता । दीनता जो समाज ने स्त्रियों को पहना रखी है,वह तो उतार फैंकने वाला आवरण है। किस लिए ओढ़ रखा है ये? इस आवरण के हटते ही वह अपने गुणों को निखार सकती है, जहाँ बल है,साहस है और एक पहचान है,एक दर्जा है जो बराबरी का है। सचमुच कितने मजबूत कन्धे हैं भागीरथी के जो ईंधन उठाने से लेकर बन्दूक तक उठा लेते हैं ।अपने वृद्ध पति और नावालिग बच्चों का बोझ भी । वह कहती है, बाबा तुम घर की देहरी बैठे रहौ, हम तुम्हें खिलायेंगे,अपनी लड़की मरने के लैं ससुराल नहीं भेजेंगे,लला को पढायेंगे,नौकरी लगवायेंगे और यूँ ही हंसत खेल्त दिन कट जायेंगे। राम जी सबकी पार लगायेंगे।खाकी वर्दी पहन वह पुलिसिया अंदाज में कहती,"जय हिन्द दीदी, सलाम दीदी " कल छब्बीस जनवरी को हमारी परेड देखने आना दीदी ।
दूसरे दिन पुलिस लाइन ग्राउंड में झंडारोहण के बाद दर्शक दीर्घा से जब कदम से कदम मिलाकर चलती भागीरथी को सीना तान कर चलते हुए देखा तो शायद ईश्वर ने भी उसके जज्बे को सलाम किया होगा।
मैंने कहा,"शाबाश भागीरथी,सुखी रहो ,ईश्वर तुम्हारी सदैव सहायता करें । तुम्हारा आत्मसम्मान बना रहे।
