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प्यार की इन्तेहाँ

प्यार की इन्तेहाँ

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काशी के घाट पर 

मुक्ति का मार्ग सही 

मणिकर्णिका से #उठते धुँएँ से

एक रूह मुस्कुराते उभरी

किसी अपने को तरसती 

इंतज़ार भरी आँखों से

बैठी है गंगा के घाट पे..!


सोचती हूँ क्या ये नहीं पाना चाहती मुक्ति 

ये कैसा इंतज़ार है

किसी के दो बोल पर सदियाँ बिताना 

लाज़मी है क्या ?


आया उस रूह का साया मेरे पास 

कानों में बोला इतना ही

यही तो इश्क की इन्तेहाँ है 

उसने कहा था जीएँगे तो साथ में

मरेंगे तो साथ में 

मैं कैसे पाऊँ मुक्ति 

जब साथ नहीं वो मेरे..!


मैं मन ही मन मुस्काई,

रूह भी हँसकर बोली 

लगी शर्त वो आएगा 

देखो वो आ गया

हाँ सच में पूरब से एक रूह ढूँढती किसी को 

प्यासी नज़रों से आ रही है..!


दो सायों का एकाकार देखा मैंने 

गंगा की धारा को हँसते देखा मैंने 

मेरा मुँह खुला रह गया 

मैं नतमस्तक सी इतना ही बोली 

हाँ ये प्यार की इन्तेहाँ है।


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