शीतलता ढूंढ रहा मन
शीतलता ढूंढ रहा मन
उष्णता प्रेम की हो तो मन अह्लादित करती है,
पर आज प्रेम में शीतलता नज़र कहाँ आती है,
उष्णता रश्मि की तो फिर भी सहन हो जाती है,
पर नफ़रत की उष्णता तो दिल को जला देती है।
सूर्य की बढ़ती उष्णता धरातल को जला रही है,
हार चुकी ज़िंदगी शीतलता पल पल ढूंढ रही है,
सागर सा गहरा सोचा ये जिंदगी समझ ना आई,
अब तो बेगानी सी लगती है खुद की भी परछाई।
वीरान जंगल सी लगती दुनिया मैं सूखे पत्तों सा,
हवा के हर झोंके से कब से इधर उधर भटक रहा,
शाख से छूटकर तो खो चुका हूं अपना वज़ूद भी,
अपनी ही गलियों में मैं अजनबी बनकर घूम रहा।
धुंधली हो चुकी मंजिल रिश्ते गुम हो गए हैं सभी,
अपनों से भी बढ़कर अपने हुआ करते जो कभी,
मुस्कुराहट की चादर ओढ़कर वो मुझे छलते रहे,
झूठा प्यार दिखा कर बस जज्बातों से खेलते रहे।
रिश्ते, नाते, प्यार-मोहब्बत पर अब यकीन ना रहा,
चेहरों पर लगे चेहरे किसी का चेहरा ना पढ़ सका,
दिखावा प्यार का और दिलों में नफ़रत पालते जो,
वो जलाते रहे हर पल और मैं शीतलता ढूंढता रहा।
विश्वास की डोर क्यों कमजोर पड़ी क्या कमी थी,
दिल से निभाया रिश्ता पर रिश्तों में वफ़ा नहीं थी,
क्यों अपने ही अपनों का ऐसे विश्वास तोड़ देते हैं,
प्यार के बदले प्यार नहीं क्यों सिर्फ नफ़रत देते हैं।