जज़्बातों का तबादला
जज़्बातों का तबादला
तूने हाथ पकड़ अपनी
दहलीज़ पर ला खड़ा किया मुझे
जहां से ना अंदर आने की इजाज़त मिली
ना वापस लौट जाने का हुक्म।
तूने उम्मीद का लालच दिखा
मेरा वक़्त ठग लिया
और इंतजार में तेरे ना-जाने कितने रोज़
मैंने सूरज से चाँद किया।
मंजिल तेरे प्यार को समझ बैठी
और उस उम्मीद में
इतना फासला तय किया कि
जिस रास्ते आई थी वो रास्ता ही खो दिया।
मेरे इश्क-की-आबरु को
तेरी ज़बान ने कई बार नोच खाया
और तेरे इश्क-से-रूबरू की उम्मीद ने
रोज़ मुझसे मेरे ही ख़ुद-आदर का क़त्ल करवाया।
देर तो काफी हो चुकी थी
अपने घर का पता भी मैं खो चुकी थी।
मगर ना-जाने तेरे शहर के चाँद को
उस रोज़ हुआ क्या।
जो छुपा रहता था
कभी बादलों के साए में
आज पहली बार उतरा उसका अक्स
तेरी ज़मीन के कुंड में।
जिसमें मेरा चेहरा भी था कहीं
चेहरे पर मुस्कुराहट तो थी
मगर माथे पर शिकन की लकीरें
वो चाँद शायद उस रात जमीन पर
सिर्फ मेरे लिए उतरा था।
वो चाँद जो मुझे उस रात एक बात सिखा गया
"उस शहर के लोगों पर कभी एतबार ना करना
जिस शहर का चांद धुंधला हो
गहरी चाँदनी रात हो।
मगर फिर भी पानी में
उस आसमां के चाँद का अक्स ना हो"।
उसके लिए अपने जज़्बातों का
तबादला कर दिया था मैंने।
उसकी दहलीज जिसको
अपना घर समझ लिया था मैंने
आज वाहा से लौट चलने का वक्त था
ना कोई दोस्त ना घर का पता ही मालूम था।
मगर वो जो आसमां का चाँद था वो आज मेरा था
जो उस रात मेरे साथ चला उस जगह तक
जिस जगह मुझे महफूज ना महसूस हुआ
जिस जगह से उसके घर की दहलीज़ का दिखना
ना बंद हुआ।।