मेरे सपनों का अंत नहीं हुआ
मेरे सपनों का अंत नहीं हुआ
यज्ञ हो,
महायज्ञ हो ...
मौन हो, शोर हो,
खुशी हो, डूबा हुआ मन हो !
चलायमान मन ...
जाने कितनी अतीत की
गलियों से घूम आता है।
बचपन, रिश्ते, पुकार, शरारतें,
हादसे, सपने, ख़याली इत्मीनान ...
सब ठहर से गए हैं !
पहले इनकी याद में,
बोलती थी,
तो बोलती चली जाती थी !
तब भी यह एहसास था
कि सामने वाला सुनना
नहीं चाहता,
उसे कोई दिलचस्पी नहीं है,
हो भी क्यूँ !!!
लेकिन मैं, जीती जागती टेपरिकॉर्डर -
बजना शुरू करती थी,
तो बस बजती ही जाती थी।
देख लेती थी अपने भावों को,
सामनेवाले के चेहरे पर,
और एक सुकून से
भर जाती थी,
कि चलो दर्द का
रिश्ता बना लिया,
माँ कहती थी,
दर्द के रिश्ते से बड़ा,
कोई रिश्ता नहीं !
ख़ुद नासमझ सी थी,
मुझे भी बना दिया।
यूँ यह नासमझी,
बातों का सिरा थी,
लगता था - कह सुनाने को,
रो लेने को,
कुछ है ... भ्रम ही सही ।
चहल पहल बनी रहती
अपने व्यवहार से,
क्योंकि सामनेवाला सिर्फ़
द्रष्टा और श्रोता होता !
ईश्वर जाने,
कुछ सुनता भी था
या मन ही मन भुनभुनाता था,
मेरे गले पड़ जाने पर !
सच भी है,
कौन रोता है किसी और की
ख़ातिर ऐ दोस्त
और दूसरी ओर
दूसरों की ख़ुशी बर्दाश्त किसे होती है !
लेकिन, भिक्षाटन में मुझे दर्द मिला,
और उसे सहने की ताकत,
तो जिससे प्यार जैसा कुछ महसूस होता,
देना चाहती थी एक मुट्ठी,
पर झटक दिया द्रष्टा,श्रोता ने !
"आपकी बात और है, हम क्यूँ करेंगे भिक्षाटन!"
अचंभित, आहत होकर सोचती रही,
हमें कौन सी भिक्षा चाहिए थी
जो भी था, समय का हिसाब किताब था ।
ख़ैर,
सन्नाटा सांयें सांयें करे,
या किसी उम्मीद की हवा चले,
मैं उस घर की सारी खिड़कियाँ
खोल देती हूँ,
जिसके बग़ैर मुझे रहने की आदत नहीं।
बुहारती हूँ,
धूलकणों को साफ़ करती हूँ,
खिलौने वाले कमरे में प्राण
प्रतिष्ठित खिलौनों से
बातें करती हूँ,
सबकी चुप्पी,
बेमानी व्यस्तता को,
अपनी सोच से सकारात्मक मान लेती हूँ,
एक दिन जब व्यस्तता नहीं रह जाएगी,
तब उस दिन इस घर,
इन कमरों की ज़रूरत तो होगी न,
जब -
गुनगुनाती,
सपने देखती,
मैं उन अपनों को दिखूंगी,
जिनके लिए,
मेरे सपनों का अंत नहीं हुआ,
और ना ही कमरों में सीलन हुई !
सकारात्मक प्रतीक्षा बनी रहे,
अतीत,वर्तमान, भविष्य की
गलियों में सपने बटोरती मैं
- यही प्रार्थना करती हूँ ।