गज़ल
गज़ल
कैसे कैसे अज़ाब देखते हैं ।
फिर भी जीने के ख़ाब देखते हैं ।
ऐसे जीते हैं ज़िन्दगी यारों ।
रोज़ अपना हिसाब देखते हैं ।
छोड़ो, शिकवे, गिले अँधेरों से ।
अब नया आफ़ताब देखते हैं ।
जिसमे तहरीरें हैं बुजुर्गों की ।
रोज़ हम वो किताब देखते हैं ।
तुम को आदत है ख़ार देखने की ।
और हम, बस गुलाब देखते हैं ।