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manisha sinha

Abstract

4.9  

manisha sinha

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ज़िद

ज़िद

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337


हर बार सुनूँ मैं दिल की 

अब मुझे मंज़ूर नहीं है।

और दिल ने भी मेरी , ना सुनने की

शायद ,क़सम सी ले रखी है।


ए दिल, तू हमेशा पिघल कर 

झुका देता है सबके सामने।

तेरे बहकावे में ना आने की 

अब मैंने भी ,हिम्मत जुटा रखी है।


दूसरों से शिकवें कर 

क्या हासिल होने वाला ?

खुद के दिल ने भी तो 

हर मोड़ पर ज़िल्लत दी है।


क्यों हर बार परखता है तू

मुझे सच झूठ की कसौटी पर।

इस जहां को तो इन सब से

कोई लेना देना लगता नही है।


जीने दे ए दिल मुझे तू

बेफ़िक्र और बेख़ौफ़ सा।

तुझे भी तो औरों जैसे 

मेरे दर्द से ,

फ़र्क़ कोई पड़ता नहीं है।


मैं जानता हूँ, तू भी है रोता 

इस जमाने की बेरुख़ी से।

फिर भी ना जाने क्यों,

तू कहना मेरा सुनता नही है।


बेकार परेशान होता है तू

और मुझको भी करता रहता है।

औरों को तो हमारे ग़म से 

कोई वास्ता लगता नही है।


क्यों नही समझता है तू 

तेरी जीत में मेरी जीत, 

मेरी हार तेरी हार है।

फिर भी औरों को खुश करने में

नज़रंदाज़ मुझे करता रहता है।


हरबार ही हमदोनो की 

तकरार सी हो जाती है।

मगर मैंने भी ना झुकने की

अब ज़िद सी कर रखी है।


हर बार सुनूँ मैं दिल की 

अब मुझे मंज़ूर नहीं है।

और दिल ने भी, ना सुनने की

शायद, क़सम सी ले रखी है।


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