ज़माना ऐसा ही है
ज़माना ऐसा ही है
सुमन अखबार में छपी लघुकथा पढ़कर अपनी सखी नेहा को सुना रही थी, शीर्षक था -
"बड़ा कौन?"
एक औरत महंगी साड़ी पहने, हाथ में बड़ा सा बटुआ लटकाए छोटी सी दुकान में प्रवेश करके, सामान्य वेशभूषा में वहां बैठकर साड़ियां पसंद करती दो महिलाओं पर उपेक्षित निगाहें डालकर बोली-
"कम दाम की साड़ी दिखाइये, कामवाली को देनी है।"
दूसरे दिन उसी के घर में घरेलू कार्य करने वाली महिला उसी दुकान में आती है और विनम्रता से कहती है-
"आपकी दुकान में जो सबसे अच्छी साड़ी है वो दिखाइये,
मेरी मालकिन का जन्म दिन है, मैं उन्हें भैंट करना चाहती हूँ। "
लघु कथा सुनकर सुनकर नेहा कहती है - "ज़माना ऐसा ही है, चल इस विषय पर चाय पीते हुए चर्चा करेंगे, पहले अच्छी सी अदरक वाली चाय बना।"
सुमन रसोईघर में जाती है, इलायची, अदरक का तड़का दे कोरे दूध में चाय बनाती है।
छानती है। तभी उसकी नौकरानी आ जाती है।
अब उसके लिए भी चाय बनानी है।
वह छलनी में बची चायपत्ती फिर से सॉसपैन में उड़ेलती है। नल का पानी डालती है। दूध यूँ मिलाती है कि बस पानी का रंग सफेद हो जाये। दो चुटकी चीनी डालती है, फिर गैस पर चाय छोड़ बाहर आ जाती है।
दोनों सखियाँ पुराने मुद्दे पर फिर बात करने लगती हैं।
नेहा- "हाँ जमाना ऐसा ही तो है।"
सुमन -"पता नहीं कोई कैसे ऐसा कर लेता है !"
नेहा-"क्या गरीब लोग इंसान नहीं होते! "
सुमन- "मैं तो कभी ऐसा करने की सोच भी नहीं सकती...!"